स्याही के सुर : जिंदगी की कीमत और सबक की बारहखड़ी Aligarh news
साहब एक जिंदगी की कीमत क्या होती है ? सरकारी तंत्र से यह सवाल कीजिए तो रटे हुए मंत्र की तरह जवाब होंगे। एक लाख दो लाख और चार लाख... हम मुआवजा दे रहे हैं।
अवधेश माहेश्वरी अलीगढ़। साहब, एक जिंदगी की कीमत क्या होती है ? सरकारी 'तंत्र' से यह सवाल कीजिए, तो रटे हुए 'मंत्र' की तरह जवाब होंगे। एक लाख, दो लाख और चार लाख... हम मुआवजा दे रहे हैं। सच तो यह है कि इस कीमत में बड़े शहरों के पॉश इलाकों में कब्र के लिए दो गजजमीन भी नहीं मिलती। एक जिंदगी कितनी मूल्यवान होती है, यह अफसर समझते ही कहां हैं। ये कीमत तो उनको ही पता होती है, जो घर का चिराग बुझने के बाद पल-पल और तिल-तिल को तरसते हैं। यह कीमत उस मासूम को समझ आती है, जब वह पापा...पापा...पापा... कहकर उस शव की ओर दौड़ रहा होता है, जो अब बोल नहीं सकता। बेशक, तब उसे यह नहीं पता होता कि उसकी फीस भरने वाला अब कोई नहीं रहा लेकिन उसका दर्द प्यार के चलते गहरा होता है। दर्द की लकीर आजीवन ऐसी ही रहेगी। वजह है कि अब उसके साथ वह साया नहीं रहा, जो बेहतर कक्षा में बेहतर श्रेणी आने पर शाबासी से सिर पर हाथ फेरे। गलती होने पर गाल पर थपक लगाए।
अब परिवार की गाड़ी को कौन खींचेगा?
एक जिंदगी की कीमत उस पत्नी को समझ आती है, जो सिर्फ यह नहीं सोचती कि अब परिवार की गाड़ी को कौन खींचेगा? सामने रखे शव को देखने के बाद हर पल यह सोच रही होती है कि अब उसे कुछ 'नजरों' से कौन बचाएगा? मासूम को स्कूल में सुबह ही कौन ले जाएगा। लाचार हो चुके मां-बाप को समझ आती है, जिन्होंने यह सोचकर पाला था कि जब उम्र का एक दौर ढल जाएगा, दो हाथ उनको हर पल सहारा दे रहे होंगे।
...अगर चिंता होती तो फिर किसी सीएमओ को झूठ बोलने की जरूरत नहीं होती
आखिर डेंगू से अब तक अलीगढ़ में आठ व हाथरस में दो मौतों के बाद क्या किसी मंडल व जिले के अफसर ने एक पल भी ये सोचा होगा कि उन परिवारों की सपनों की धरती अचानक बंजर किसकी गलती से हो गई? नहीं, क्योंकि दूसरे घरों के चिराग बुझते हैंं, तो मीडिया की हैडलाइन में यह बेशक हों। यह जिम्मेदारों की संवेदनहीनता से नजरों से सरपट नीचे सरक जाती हैं। अगर चिंता होती तो फिर किसी सीएमओ को यह झूठ बोलने की जरूरत नहीं होती कि डेंगू से कोई मौत नहीं हुई है।
मच्छरों ने एक घर की खुशियों को डंक मार दिया
शुक्रवार से इगलास के चमचम व्यवसायी की मौत के साथ कई अरमान जले थे, तो कोई अफसर दर्द के दो शब्द कहने को कदम न बढ़ सका था। कोई ऐसा 'साहसी' नहीं था, जो नैतिक जिम्मा लेकर कहता कि हम अपनी जिम्मेदारी पूरी न कर सके, और मच्छरों ने एक घर की खुशियों को डंक मार दिया। वह सांसद, विधायक और नगर निकाय अध्यक्ष भी साहस नहीं दिखा सके, जो अक्सर वोट मांगने के दौरान उनकी रसभरी चमचम का रसास्वादन करते रहे थे।
तंत्र ने अपना कार्य क्यों नहीं किया?
विक्रम कॉलोनी निवासी डॉ. पुष्प कुमार जादौन की जान जाने की वजह भी मच्छरों के डंक थे। उनके संबंधी आज सत्तारूढ़ दल में ऊंची आवाज रखते हैैं, लेकिन वह भी यह सवाल नहीं उठा सके कि वक्त रहते तंत्र ने अपना कार्य क्यों नहीं किया। आरएसएस से जुड़े भुवन अग्रवाल को तो 22 साल के बेटे हर्ष की मौत का गम इतना है कि वह तो अभी यह सोच भी नहीं पा रहे कि इसके पीछे उस सिस्टम की बड़ी लापरवाही छिपी है, जिसे चलाने वालों को चुनने के लिए उन्होंने चुनाव में दिन-रात एक कर दिया था।
वक्त ही सबको सबक की सिखाता है बारहखड़ी
आखिर नगर निगम के अफसर अब फॉगिंग और नियोन दवा का स्प्रे करा रहे हैैं, यह काम एक माह पहले भी शुरू किया जा सकता था। आखिर मच्छरों का हमला कोई पहली बार होने के हालात नहीं बने हैैं। हर वर्षा के मौसम के बाद नमी का लाभ उठाकर मच्छर हमलावर होते हैैं। कुछ जिंदगियां घर के पलंग, कुछ अस्पताल और कुछ खत्म होने के बाद लाशें श्मशान की चिता की ओर बढ़ती हैैं। अब भी वक्त है साहब, कुछ सबक लीजिए। वरना वक्त ही सबको सबक की बारहखड़ी सिखाता है।