अलीगढ़ मे ही निखरी थी मंटो की लेखनी
उर्दू के अजीम अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की लेखनी अलीगढ़ मे ही निखरी थी।
विनोद भारती, अलीगढ़। उर्दू के अजीम अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की लेखनी अलीगढ़ मे ही निखरी थी। उनकी लिखी दूसरी कहानी 'इकलाब पसद' भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से प्रकाशित 'अलीगढ़ मैगजीन' मे 1935 मे छपी थी। पहली कहानी 'तमाशा' थी। एएमयू संस्थापक सर सैयद अहमद खां के जमाने की इस मैगजीन मे यह कहानी इसलिए छपी, क्योकि मंटो तब यहां के छात्र थे। वह 1934 मे यहां आए थे और टीबी (तपेदिक) के शिकार हो जाने के कारण सालभर मे ही स्कूली पढ़ाई छोड़कर लौट गए थे। इस बीच वह स्थानीय इडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन से भी जुड़ चुके थे।
पंजाब के लुधियाना जिले के गांव समराला मे 11 मई 1912 मे सआदत हसन मटो पैदा हुए थे। उनके पिता गुलाम हसन मंटो न्यायाधीश थे। एएमयू के उर्दू विभाग मे प्रो. तारिक छतारी बताते है कि मंटो की पर्सनैलिटी को गढ़ने मे अलीगढ़ आ बसे अमृतसर निवासी वामपंथी लेखक अब्दुल बारी अलीग का अहम रोल रहा था। उन्ही के सुझाव पर मंटो ने फ्रांसीसी व रूसी लेखको को पढ़ा और अंग्रेजी लेखन का उर्दू मे अनुवाद किया। बारी से खतो-किताबत भी उनकी चलती रही। प्रो. छतारी के मुताबिक मंटो को रोमांटिक कहानियो के लिए भले ही याद करे, मगर उन्होने तमाम कहानियां घरेलू मसलो पर भी लिखी है।
अज्ञेय ने फाड़ दिए थे अपनी कहानी के पन्ने : जाने-माने उर्दू साहित्यकार व एएमयू के उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे पद्मश्री काजी अब्दुल सलाार कहते है कि हमारे यहां दो ही अफसानानिगार हुए। मंुशी प्रेमचंद व सआदत हसन मंटो। प्रेमचंद ने गांव के पिछड़े तबके के दर्द को उठाया तो मंटो ने इससे इतर तवायफो को चुना। वह मानते थे कि समाज मे सर्वाधिक उपेक्षित, कमजोर व मजबूर समूह तवायफो का ही है। उनके सच को बयां करने मे उनकी कलम नही रुकी। उन पर अश्लीलता फैलाने के आरोप भी लगे, जो एकदम गलत थे। छह बार जेल भी गए, पर सजा से बचे रहे। बकौल प्रो. सलाार, जिस वक्त मंटो कहानी 'बू' लिख रहे थे, उसी दौरान सच्चितानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय भी इसी शीर्षक से कहानी लिख रहे थे। दोनो की भेट मुंबई मे साहित्यकार भैरों प्रसाद गुप्ता के यहां हुई। भैरों दा ने अज्ञेय को मंटो की 'बू' पढ़ने को दी। उसे पढ़ने के बाद उन्होने अपनी 'बू' फाड़ दी। प्रो. सलाार यह भी जोड़ते है कि अगर मुंशी प्रेमचंद व मंटो यूरोप मे पैदा हुए होते तो विश्वविख्यात होते। विभाजन के बाद मंटो लाहौर चले गए और 18 जनवरी 1955 को निधन हो गया। छोटे से जीवन मे ही वह अपने समय से आगे की बात कह गए।
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कई फिल्मो की लिखी पटकथा
मंटो ने ऑल इंडिया रेडियो मे नौकरी की। 1942 मे एक कार्यक्रम निदेशक से विवाद होने पर मुंबई चले गए। फिर, मिर्जा गालिब, आदमदीन, शिकारी, चल चल रे नौजवान, काली सलवार, अपनी नगरिया आदि फिल्मो की पटकथा भी लिखी।
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