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अलीगढ़ में पूर्व सीएम कल्‍याण सिंह के बिना होगा पहला चुनाव, जाने किसका होगा कल्‍याण

मढ़ौली गांव। चुनावी बयार में भी अपनी रौ में जीने वाला गांव। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के रंग में डूबकर अलग पहचान बनाने वाला गांव। प्रदेश की सियासत का ताना बाना कभी यहीं के एक बाग से बुना जाता था। भीड़ लगी रहती थी।

By Sandeep Kumar SaxenaEdited By: Published: Sat, 15 Jan 2022 07:40 AM (IST)Updated: Sat, 15 Jan 2022 07:40 AM (IST)
अलीगढ़ में पूर्व सीएम कल्‍याण सिंह के बिना होगा पहला चुनाव, जाने किसका होगा कल्‍याण
पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के रंग में डूबकर अलग पहचान बनाने वाला गांव है मढ़ौली।

अलीगढ़, जागरण संवाददाता। मढ़ौली गांव। चुनावी बयार में भी अपनी रौ में जीने वाला गांव। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के रंग में डूबकर अलग पहचान बनाने वाला गांव। प्रदेश की सियासत का ताना बाना कभी यहीं के एक बाग से बुना जाता था। भीड़ लगी रहती थी। सियासी लोगों का यह जमघट बाग ही नहीं, यहां से कुछ दूरी पर स्थित पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पैतृक घर भी रहता था। कल्याण के बिना अब कतार नहीं दिखती। पर, गांव में सियासी गर्माहट पहले जैसी ही है। गांव के लोग पूरे जिले की सियासत से वाकिफ थे, पर इस सवाल से बेखबर थे कि आखिर बाबूजी के बिना यह पहला चुनाव जिले में क्या गुल खिलाएगा? 

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बाबूजी के सुनाए स्‍मरण

रामघाट-कल्याण मार्ग (पहले रामघाट रोड) से करीब सौ मीटर की दूरी पर स्थित मढ़ौली गांव में अब सियासी रंग भले किसी का जमे, पर आस्था और भावनाओं के रंग में कल्याण ही हैं। कई घरों में लगीं उनकी तस्वीर इसकी गवाह हैं। एक मकान के दरवाजे से ही अंदर लगी तस्वीर दिखाते युवक ने बाबूजी से रिश्ते का अहसास करा डाला। कल्याण से लगाव की बानगी तो गांव में घुसते ही मिली। बाबूजी के घर का रास्ता साइकिल सवार 65 वर्षीय लक्ष्मण सिंह ने समझा दिया। पर, वे यहीं तक न रुके। बोले, बाबूजी के समय गांव की रंगत कुछ और ही हुआ करती थी। बात आगे बढ़ी तो बाबूजी के जीवन से जुड़े किस्सों पर आ गए। बोले, भले ही वो अब नहीं हैं। लेकिन हमारे दिलों में तो जिंदा हैं। बाबूजी ने अतरौली से ही राजनीतिक सफर शुरू किया था। 10 बार अतरौली विधायक रहे। 1969, 1974, 1977 में तो उन्होंने भारतीय जनसंघ की टिकट पर जीत की हैट्रिक बनाई। कोई पार्टी कभी यहां की सियासत को लेकर पूर्वानुमान नहीं कर सकी। सिर्फ पूर्व सीएम कल्याण सिंह ही थे, जिनकी अपनी लहर चली। जितनी बार लड़े, चुनाव जीते। उनके समर्थन से कई औरों की नैया भी किनारे लग गई। थोड़ी आगे एक गली में कुछ युवक तो चुनाव पर ही चर्चा करते मिले। इनमें शामिल महेंद्र ने जोश में कहा, बाबूजी को भुलाया नहीं जा सकता। यहां से कुछ और आगे बढ़ने पर कल्याण सिंह का पैतृक घर दिखाई दिया। अंदर से दरवाजा बंद था। आसपास की गलियों में खास चहल पहल नहीं थी। पास में ही खड़े रिंकू ने कहा, साहब, बाबूजी ने क्या नहीं किया? गांव में पानी की टंकी लगवा दी। पक्के रोड बनवाए। राममंदिर आंदोलन के लिए तो उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। अशोक कुमार तो कल्याण सिंह का नाम लेते ही भावुक हो गए। बोले, बाबूजी सबको अपना मानते थे। जब वह पहली बार मुख्यमंत्री बनकर अतरौली आए थे, तब उन्होंने कहा था, पहले मैं गांव का था अब पूरे प्रदेश का हूं।

जिले में ऐसे छाए कल्याण

अलीगढ़ की राजनीति की जानकारी रखने वाले योगेश शर्मा बताते हैं कि 1982 में कल्याण सिंह को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया। इस निर्णय के पीछे अटल जी का मकसद कल्याण सिंह को पिछड़ों के नेता के रूप में स्थापित करना था। कल्याण भी अटल की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। 1974 में आपातकाल के बाद अलीगढ़ जिले की राजनीति कांग्रेस नेता सुरेंद्र सिंह, कल्याण सिंह और चौ. राजेंद्र सिंह के इर्द-गिर्द रही। बरौली से पांच बार विधायक रहे सुरेंद्र सिंह मंत्री रहने के अलावा विधनसभा के उपाध्यक्ष भी रहे। जनसंघ की तरफ से कल्याण सिंह मुख्य सचेतक थे। 1977 में बनी सरकार में कल्याण सिंह को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री बने। जबकि राजेंद्र सिंह को कृषि आैर सिंचाई मंत्रालय दिया गया। सरकार में दूसरे नंबर के प्रभावशाली भी नेता थे। बनारसीदास सरकार में भी दोनों मंत्री रहे। जनसंघ गुट में कल्याण सिंंह प्रमुख थे। 1980 में विधानसभा भंग होने पर चुनाव हुए तभी भाजपा बनी।

प्रदेश महामंत्री बने कल्‍याण सिंह

कल्याण सिंह को प्रदेश महामंत्री बनाया। राजेंद्र सिंह नेता विरोधी दल बने। 1989 के चुनाव में कल्याण सिंह ने जीत दर्ज की, जबकि राजेंद्र सिंह इगलास सीट से 64 मतों से हार गए। इसके बाद ही कल्याण सिंह का प्रभाव बढ़ता चला गया और राजेंद्र सिंह राजनीति से दूर होते चले गए। कांग्रेस से घनश्याम सिंह भी उभरे, जो राज्यसभा सदस्य और एफसीआइ के चेयरमैन बने। इसके बाद वह आगे नहीं बढ़ पाए। 1991 व 1997 में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तो जिले की राजनीति उन पर ही केंद्रित हो गई। सवाल यह है कि भाजपा कल्याण सिंह के नाम को कितना भुना पाती है। अन्य पार्टियां कल्याण सिंह के परंपरागत वोट को कितना रिझा पाती हैैं।


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