बिटिया की चीखें आखिर पुलिस सुनती क्यों नहीं?
सरकार बदलती हैैं लेकिन पुलिस नहीं। पुलिस की संवेदना के स्रोते सूखे हुए ही क्यों रहते हैैं? क्यों टप्पल की मासूम बिटिया की चीत्कारें उसके कानों तक नहीं पहुंचतीं?
अवधेश माहेश्वरी अलीगढ़। हर शख्स को एक सवाल परेशान करता है कि पुलिस सुनती क्यों नहीं? हर चुनाव में कानून व्यवस्था और पुलिस कार्यप्रणाली के बदलाव पर बहस होती है। सरकार बदलती हैैं लेकिन पुलिस नहीं। पुलिस की 'संवेदना' के स्रोते सूखे हुए ही क्यों रहते हैैं? क्यों टप्पल की मासूम बिटिया की चीत्कारें उसके कानों तक नहीं पहुंचतीं? बिटिया की मां जब थाने में हृदय विदारक रुदन के साथ गुहार लगा रही थी, तो भी पुलिस ने क्यों नहीं सुनील? पुलिस की इस अनसुनी की बीमारी से मासूम बिटिया तो दङ्क्षरदों की शिकार बन गई। उसका शव मिला, तो बता रहा था कि उसके साथ क्या-क्या नहीं किया गया। पुलिस तो भी न सुन सकी। वह दङ्क्षरदों की पहचान भी न कर सकी, आखिर अपने खून की चीखें बार-बार पुकार रही थीं, तो यह काम भी आधा तो पिता को ही करना पड़ा। अब तो पुलिस को सुन ही लेना चाहिए था, लेकिन नहीं। बिटिया एक देह के रूप में पोस्टमार्टम के लिए पहुंची, तो डॉक्टरों के पैनल को भी वीभत्सता की कहानी सुना दी।
डॉक्टर बोले, नहीं देखी ऐसी क्रूरता
पुलिस सुन नहीं पा रही थी, इसलिए उन्होंने एक कागज के 'पुर्जे' पर लिखकर पुलिस को दे दी। अब पुलिस इसे बांच भी न सकी। डॉक्टरों ने बता दिया कि ऐसी क्रूरता उन्होंने नहीं देखी। बिटिया की किडनी नहीं है। हाथ तोड़ दिया, पसलियां तोड़ दीं। प्राइवेट पाट्र्स क्षतिग्रस्त हैैं, लेकिन पुलिस न सुन पा रही थी और न कागज से पढ़ सकी। वह सिर्फ बोल रही थी कि दुष्कर्म नहीं हुआ है।
सोशल मीडिया ने कराया एहसास
मीडिया ने कहा कि बिटिया के साथ इंसाफ नहीं हुआ। सोशल मीडिया से आवाज गूंजने लगीं लेकिन पुलिस फिर भी न सुन सकी। जब बिटिया की चीख को सोशल मीडिया पर साथ मिला, तो पुलिस को अहसास हुआ कि बिटिया की आवाज के साथ कारवां बन गया है। अब यह उसकी वर्दी पर दाग लगा रहा है, तब कहीं मजबूरी में पांच पुलिसकर्मी निलंबित कर दिए, लेकिन फिर भी सभी अपराधियों को वर्दी सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा सकी। विरोध की आवाजें जब सत्ता तक पहुंचने लगीं, आखिर तब पुलिस ने सुन लिया। फैसला लिया कि एसआइटी से जांच करानी चाहिए। आरोपितों पर रासुका और पॉक्सो लगाना चाहिए। लेकिन बहुत देर कर दी।
हर रोज होती है दरिंदगी
वैसे सवाल फिर भी बाकी है कि आखिर दिल्ली में भी तो एक बिटिया के साथ ऐसा ही अन्याय हुआ था। पूरा देश उसके साथ खड़ा हो गया। कड़ा कानून बन गया। सोचा था कि अब किसी बिटिया के साथ दङ्क्षरदगी नहीं होगी? लेकिन अब भी हर रोज कहीं न कहीं ऐसी दङ्क्षरदगी होती हैै। पुलिस कहीं एक्शन में होती है, तो कहीं टप्पल की बिटिया जैसी चीखों को भी सुनती नहीं। आखिर पुलिस की संवेदना के स्रोतों को फिर से कैसे सक्रिय किया जाए। यह सवाल अभी बाकी है। यदि इसका जवाब नहीं तलाशा तो मासूम बिटियाओं की चीखें दिल्ली और टप्पल की तरह ऐसे ही दबती रहेंंगी। हर बिटिया के मां-बाप भयभीत रहेंगे कि कहीं उनकी फूल सी बेटी को भी किसी की नजर न लग जाए।
दरिंदों को कब तक पुलिस दिलाएगी सजा?
बिटिया को लेकर एक सवाल अभी टप्पल में और बाकी है कि दङ्क्षरदों को पुलिस सजा कब तक दिला सकेगी। उप्र के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह की मानें तो 30 दिन में पुलिस ऐसा करे, तो टप्पल में विश्वास को हुए घावों पर एक मरहम लगेगा। अन्यथाबिटिया की चीखेंकहती रहेंगी कि पुलिस सुनती क्यों नहीं है। सवाल उठता रहेगा कि पुलिस सुनती क्यों नहीं? टप्पल जैसी छावनियां विरोध की आवाजों के डर से बनती रहेंगी।
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