आसपास के जिलों के लोगों के लिए भी खास बाजार है अलीगढ़ का 'मामू -भांजा' Aligarh news,
हर जिले में कुछ न कुछ खास होता है। ब्रज में शामिल अलीगढ़ की तो बोलचाल का भी जवाब नहीं। सामान्य भाषा में जो अच्छा लगा पुकार लिया। कई बाजारों के नाम इस तरह के रख लिए गए कि बाहर से आए लोग एक बार तो समझ ही ना पाएं।
मनोज जादौन, अलीगढ़ : हर जिले में कुछ न कुछ खास होता है। ब्रज में शामिल अलीगढ़ की तो बोलचाल का भी जवाब नहीं। सामान्य भाषा में जो अच्छा लगा पुकार लिया। अब से नहीं सदियों से यही रहा। इसी दौर में कई बाजारों के नाम इस तरह के रख लिए गए कि अन्य प्रदेशों के आए लोग एक बार तो समझ ही ना पाएं। पिछले ही दिनों की बात है। अन्य प्रदेश के एक व्यापारी शहर में थे। जिनसे मिलने आए, वो यह कह कर चल दिए कि आप रुकें। मामू -भांजा जा रहे हैं। जनाब, नजर चारों ओर घुमाकर सोचने लगे कौन मामू-भांजा। बाद में पता लगा कि यह तो बाजार का नाम है। यह कोई पहला किस्सा नहीं। अजब-गजब नाम वाले गली-मोहल्लेे और बाजारों से जुड़े अनेक रोचक किस्से सुनने को मिल जाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि ये नाम पड़े कैसे। बात मामू-भांजा बाजार की है। इसकी भी एक कहानी है।
ऐसे पड़ा बाजार का नाम
मामू-भांजा बाजार का नाम एक मजार से पड़ा। कुछ पुराने दुकानदारों को इसके बारे में उनके बुर्जुगों ने बताया था। उनके अनुसार 1700 के आसपास मुगलों का शासन था। अंग्र्रेज कब्जा करना चाहते थे। इसको लेकर लड़ाई चल रही थी। उस दौरान मुगल सेना के सिपाही बारे खां बाबा अपने परिचित एक योद्धा व उसके दो भांजों को लाए और युद्ध लड़ा, जिसमें दोनों की मौत हो गई। उनकी मजार बाजार के चौराहे के पास आज भी है। हालांकि, कुछ लोगों ने यह भी बताया कि आजादी से पहले शहर के सबसे व्यस्तम व सकरे बाजार मामा-भांजे ने मामूभांजा बाजार को पहचान दी। अब से 65 साल पहले रोडियो वाली गली की पहचान बना यह क्षेत्र आवासीय था। मुस्लिम परिवार के मामा-भांजे में अटूट प्रेम था। तभी तो राधा रमण मंदिर के निकट इनकी आज भी मजार बनी हुई है।
ऐसे हुआ विस्तार
जीटी रोड कंपनी बाग के निकट रिहायशी इलाका था। पहले जीटी रोड कंपनी बाग से रेलवे रोड को जोड़ने वाली सड़क को मामूभांजा बाजार कहते थे। यहां अधिकांश ऐसे लोगों की दुकान व प्रतिष्ठान थे, जिनका ऊपर घर व नीचे प्रतिष्ठान होती थी। उस दौर में रेडियो व साउंड सिस्टम बेचे जाते थे। धीमे धीमे समय बीता। उस दौर में रेडियो वाली गली में चंद्रा प्रसूत गृह, श्रीराम हलवाई, एक दर्जी व चक्की थी। जहां श्रीराम मंदिर है, वहां एक सुंदर लाल खंडेलवाल कबवाड़ी का काम करते थे। मास्टर रेडियो परिवार शुरु से ही रेडियो बेचने व लाउडस्पीकर व अन्य साउंड सिस्टम बेचने का काम करते थे। इनके परिवार के कई लोग भी इस पेशे में उतर आए।
फिल्म रिलीज होते ही कैसेट उपलब्ध
समय गुुजरता गया। कैसेट का जमाना आ गया। रेडियो से टेप रिकार्डर आ गए। देखते ही देखते रेडियो वाली गली बाजार में बदल गई। यहां दूर दराज से कैसेट लेने लोग आने लगे। फिर शुरू हुआ ब्रांडेड व अन ब्रांडेड कैसेट का खेल। वीसीपी से वीसीआर तक यह बाजार रिफेयरिंग के लिए भी पहचान बना चुका था। नकली सीडी की ये राजधानी बन गया था। आलम ऐसा की फिल्म रिलीज होने वाले दिन ही कैसेट में फिल्म आ जाती थी। प्रशासनिक स्तर से बड़ी कार्रवाई भी हुईं। अब यहां अतिक्रमण का हल्ला है। गलियों में बने मकान अब बड़े बड़े व्यवसायिक में बदल गए। मोबाइल रिपेयरिंग से लेकर एसेसरीज का मामूभांजा बाजार कहता रहा है। यहां इलेक्ट्रोनिक्स सजावटी समान के थोक कारोबारी भी हैं। टीवी, रेफ्रीजरेटर भी हैं। मीह लाल की प्याऊ से लेकर मानिक चौक की सीमा तक व रेलवे रोड से सटा व चाह गरमाया तक बाजार विकसित हो गया है।
पुरानी यादें
बाजार में स्थित एक शोरूम केे संचालक - मास्टर ओम प्रकाश ने बताया कि दादाजी का पुस्तैनी रेडियो का काम था। नीचे दुकान व ऊपर आज भी घर है। 65 साल के अंतराल में यह बाजार लगातार विकसित हो रहा है। समय के मांग के अनुसार बाजार में उत्पादन बदल जाते हैं। मामूभांजा का नाम आजतक पता नहीं चला। प्रमोद कुमार ने बताया कि मेरी 60 साल उम्र है। पहले दुकान मुख्य रोड पर ही थीं। गली में एक-दो छोटी छोटी दुकान थीं। हमारे घर के नीचे आटा चक्की थी। नमक भी पीसा जाता था। दुकानदार इसे पैकेट बनाकर बेचते थे। समय के साथ कारोबार बदल गया। साकिर नेे बताया कि हमने सिर्फ मामूभांजा नाम से मजार ही सुनी है। इनके नाम से बाजार को पहिचान मिली है। बस इतना ही जानते हैं। यह बाजार शहर की शान है। यहां आपसी भाई चारा के साथ ही व्यापार किया जाता है। हरीश कुमार ने बताया कि इस बाजार में बेहजोई सहित अन्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों से फुटकर कारोबारी उत्पादन खरीदने आते हैं। यह अलीगढ़ के बाजारों में खास है।