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जी हा, मैं हूं आगरा का बदहाल शहीद स्मारक

कभी शहर की खूबसूरती बसती थी यहा, अब ले रहा अंतिम सास। अधिकारी और जनप्रतिनिधि नहीं दे रहे विकास पर कोई ध्यान।

By JagranEdited By: Published: Tue, 14 Aug 2018 03:45 PM (IST)Updated: Tue, 14 Aug 2018 03:45 PM (IST)
जी हा, मैं हूं आगरा का बदहाल शहीद स्मारक
जी हा, मैं हूं आगरा का बदहाल शहीद स्मारक

आगरा(विनीत मिश्र): मैं शहीद स्मारक हूं। वह जो शहर के हृदय स्थल संजय प्लेस पर स्थित है। ताजनगरी में रहने वाला शायद ही ऐसा कोई शख्स ऐसा होगा, जो मेरे इतिहास से परिचित न हो। मेरे सीने पर उगे दर्जनों पेड़ों के नीचे बैठकर लोग सुकून तलाशते थे। शहीदों को नमन करना हो या फिर कोई कार्यक्रम। मैंने हमेशा शहरवासियों को प्यार देने के लिए अपनी बाहें फैलाईं। बच्चों ने मेरे आचल में खूब उछलकूद की, तो बड़ों को सुकून के दो पल भी मैंने ही दिए, लेकिन मुझे किसी ने नहीं सहेजा। आज अपने ही शहर में मैं बदहाली के दौर से गुजर रहा हूं।

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मेरा सफर यूं ही नहीं शुरू हुआ। मैं शहर की युवा पीढ़ी को बताना चाहता हूं, जिस जगह पर आज मैं हूं, वहा कभी अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी जेल बनाई थी। अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले क्रातिकारियों को इसी जेल में यातनाएं दी गईं। अंग्रेजों के खिलाफ वह नारे लगाते, तो मेरी छाती फूलकर चौड़ी हो जाती। यातनाएं सहते-सहते मा भारती के कई लाल सदा के लिए सो गए, तो मेरी आखों से नीर का सैलाब बहा। अंग्रेज भागे तो चाहरदीवारी से यातानाएं भी खत्म हो गईं। बात अस्सी के दशक की है। तब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी के बेटे संजय गाधी इस स्थान से गुजरे, लोगों की माग पर यहा जेल खत्म कर शहीदों की याद में स्मारक बनाने का ऐलान हुआ। शहीदों की यादें संजोने का जो सपना शहरवासियों की आखों ने देखा, वह साकार हुआ।

मेरी ख्याति बढ़ी तो लोगों के घूमने के स्थान के रूप में पहचान बन गई। दिन भर मेरे आचल में सैकड़ों लोग समय बिताते। सरकारी मशीनरी ने भी मेरे ऊपर खूब रुपया खर्च किया, लेकिन मुझे सहेज कर रखने की फिक्र किसी को नहीं रही। आपको याद तो होगा, मेरे आचल में बिखरी नर्म धूप और वह मोहक फव्वारे। आज जरा उनका हाल देखिए।

समय बीतता रहा और मैं बस नाम का शहीद स्मारक रह गया। घास इतनी बड़ी है कि जिम्मेदारों को दिखाई नहीं देती। पेड़ टूटे तो जगह-जगह लकड़ियों के ढेर रख दिए गए। जिन फव्वारों से निकली पानी की धार देखने को भीड़ जुटती थी, वह आज टूट गए हैं। मैं बदहाल हुआ, तो शहर के लोगों ने भी मुझसे मुंह मोड़ना शुरू कर दिया। मेरे पास आने वालों की संख्या कम हो गई। परिसर में बनी लाइब्रेरी भी अब नाम मात्र की है। कभी शहीदों का साहित्य था, जो अब धीरे-धीरे गुम हो गया। जनप्रतिनिधि भी मेरे लिए बातें बड़ी-बड़ी करते रहे, लेकिन कभी मुझे सहेजने के लिए अपनी निधि से एक पैसा नहीं दिया।

दें भी क्यों, मैं कोई उनका वोट बैंक थोड़े हूं। एक दिन बाद 15 अगस्त है। सरकारी दफ्तरों से लेकर सार्वजनिक स्थानों पर देशप्रेम की बातें होंगी, शहीदों को नमन किया जाएगा। मेरे आचल में भी श्रद्धा के दो फूल चढ़ाए जाएंगे, लेकिन फिर कुछ घटे के बाद मुझे बिसार दिया जाएगा। मेरे लिए कुछ कर सकते हो, तो कम से कम पुराना स्वरूप ही लौटा दो। मेरे पेड़ों की छाव में बैठकर-पढ़कर कोई अफसर बना तो कोई नेता। यदि वह चाहें तो मुझे मेरा सौंदर्य फिर वापस दिला सकता है। हर बार की तरह इस बार भी मैं स्वतंत्रता दिवस पर फिर से हरा-भरा होने के ख्वाब देख रहा हूं। शायद कोई सुबह मेरे लिए उम्मीदों का नया सूरज लेकर आए।


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