अनकही: मंडी वाले साहब हैं परेशान, नहीं सूझ रही कोई तरकीब Agra News
जहां फल और सब्जी के ढेर हैं वहां कचरा तो बिखरेगा ही। इससे निपटना इतना आसान नहीं। साहब हैं लाचार कैसे निकालें इस समस्या का हल।
आगरा, अंबुज उपाध्याय। हरी तरकारी और फलों से गुलजार रहने वाली सब्जी मंडी के आला अफसर की परेशानी का हल नहीं निकल रहा। साहब बाजार में साफ-सफाई को लेकर खासे परेशान रहते हैं। कभी खबरनवीस पोल खोल देते हैं, तो कभी किसी वजीर या राजधानी के अफसर का दौरा लग जाता है। जमीनी स्तर पर जिन पर साफ सफाई की जिम्मेदारी है, वह भी दबाव के बाद ही सुनते हैं। थोड़ा बहुत सुधार होता है, लेकिन सुबह-सुबह क्विंटलों माल की आमद के साथ सारी साफ-सफाई धुल जाती है। दरअसल, नब्ज पर हाथ ही नहीं। मंडी में गिने-चुने कूड़ादान हैं। कितना कूड़ा समाए? वहां तक कूड़ा कौन ले जाए। नतीजा, हर दुकान और टाट के पास गाद जमा। बड़े कंटेनर रखवाएं तो कुछ प्रयास सार्थक हो। लोगों की जिम्मेदारी तय की जाए। फिर भी न माने तो जुर्माना वसूला जाए। ऐसे में सुधार का प्रयास सफल हो सकता है।
साहब का सख्त उपदेश
शहर को ईंधन देने वाले साहब कुछ सख्ती पर आए तो अधीनस्थों के पसीने छूट गए। अधीनस्थों को उपदेश किया कि कुछ भी करो, लेकिन गृहणियों के साथ छलावे पर रोक लगनी चाहिए। रसोई के ईंधन पर पडऩे वाला डाका हर हाल में रोको। महंगाई पहले ही कुलांचे भर रही। ऐसे में लोगों का बजट गड़बड़ाता है, तो गालियां सीधे हमारे हिस्से आती हैं। यमुना पार वालों ने सफाई दी तो साहब उपदेश से सीधे एक्शन मुद्रा में आ गए। आंखें चढ़ाकर डपट दिया। बोले-काजल की कोठरी तो वहीं है, जिस पर लगाम लगानी है खुद ही लगा लो। इससे प्रसिद्धी मिलेगी। वरना, अपयश पाओगे। उपदेश कितना असर लाया, ये तो भविष्य ही बताएगा। फिलहाल, यमुनापार वाले जमीन खिसकने के डर से बयाना लौटा रहे हैं। साहब का डर भी दिखा रहे। खेल करने वाले फुसफुसा रहे, अब 'खर्च' की वसूली तो यहीं से होनी है।
उलटी पड़ गई 'चित्रकारी'
संदर्भ से हटें तो शब्दों के मायने बदल जाते हैं। अब चित्रकारी को ही ले लें। सरकारी भाषा में इसका अर्थ कमाऊ प्रोजेक्ट है। ऐसी ही एक चित्रकारी लेकर बागों की देखभाल करने वाले अफसर बड़े साहब के सामने पहुंचे। चित्रकारी सामने रखी। बड़े साहब ने समझा कि कोई विकास संबंधी काम है। हस्ताक्षर करने ही वाले थे कि साइड में लगी टिप्पणी नजर आ गई। इसमें पुरानी चित्रकारी का जिक्र था। बड़े साहब की त्यौरियां चढ़ गईं। सवाल पर सवाल का सिलसिला शुरू हुआ। ये चित्रकारी कब हुई और इजाजत कहां से ली गई ? अब बाग वाले साहब बगलें झांकने लगे। बड़े साहब ने भी पुराना हिसाब तलब कर लिया। साफ-साफ कह दिया कि अगली चित्रकारी में तभी रंग भरेंगे जब पहली पूरी होगी। यहां तक गनीमत थी। अब पुरानी चित्रकारी की बारीकियां खंगालने के लिए दूसरे साहब की भी तैनाती कर दी गई।
बिन संसाधन, कैसे पालन
सरकारी अफसरों से लेकर विधायकों-मंत्रियों तक के कुंडली दोष खंगालने वाले लोकपाल की नियुक्ति हुई। पदनाम ही डराने के लिए काफी है। मंडल मुख्यालय में बैठना है। फिलहाल, वह उस स्थान की तलाश में हैं, जहां बैठकर कुंडली विचारेंगे और अफसर हैं कि उन्हें जमने नहीं देना चाहते। जब से लखनऊ से पत्र लेकर आए हैं, तब से दरवाजे-दरवाजे दौड़ लगा रहे और अपने ठीहे का पता पूछ रहे। भटकते हुए लंबा समय हो गया। अब तो धैर्य भी जवाब देने लगा है। पिछले दिनों वे गांवों के विकास की जिम्मेदारी संभालने वाले भवन तक पहुंच गए। अड़ गए कि पत्र में भी इसी भवन का जिक्र है। अब क्या था, व्यवस्था जुटाने के लिए जिम्मेदार जुट गए। कमरे तलाशे गए तो एक कोना सजाया गया। साहब यहां विराजमान हुए लेकिन नई दिक्कत है। संसाधनों को भटक रहे हैं। बताते घूम रहे-बिन संसाधन कैसा लोक पालन।