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Sawan 2020: भोलेनाथ ने शरीर पर जितनी चीजें धारण की हैं, उनका महत्‍व कर देगा अचंभित

Sawan 2020 धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार सनातन धर्म पूर्ण रूप से विज्ञान पर आधारित धर्म है। भगवान शिव द्वारा धारण की जाने वाली हर वस्‍तु कोई न कोई सार्थक संदेश देती है।

By Tanu GuptaEdited By: Published: Tue, 14 Jul 2020 11:37 AM (IST)Updated: Tue, 14 Jul 2020 11:37 AM (IST)
Sawan 2020: भोलेनाथ ने शरीर पर जितनी चीजें धारण की हैं, उनका महत्‍व कर देगा अचंभित
Sawan 2020: भोलेनाथ ने शरीर पर जितनी चीजें धारण की हैं, उनका महत्‍व कर देगा अचंभित

आगरा, तनु गुप्‍ता। कहा जाता है कि आराधक को अपने आराध्‍य के  हर रूप का यदि ज्ञान है, उनके द्वारा धारण की जाने वाली हर वस्‍तु के महत्‍व का मर्म वो जानता है तो आराधना और भी आस्‍था से परिपूर्ण हो जाती है। यूं तो भगवान भोले नाथ बहुत ही भोले हैं। शमशान की राख से श्रंगारित होते हैं तो सर्पों के आभूषण धारण करते हैं। लेकिन सावन माह में शिव आराधकों को आवश्‍यक है कि वो अपने आराध्‍य द्वारा तन पर धारण करने वाली वस्‍तु के महत्‍व को समझें। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार सनातन धर्म पूर्ण रूप से विज्ञान पर आधारित धर्म है। भगवान शिव द्वारा धारण की जाने वाली हर वस्‍तु कोई न कोई सार्थक संदेश देती है। वैज्ञानिक महत्‍व रखती है।

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शिव लिंग

पंडित वैभव बताते हैं कि यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर की गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल हैं। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

शिव का वाहन नंदी

शिव का वाहन वृषभ यानि नंदी शक्ति का पुंज भी है सौम्य- सात्त्विक बैल शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है।

चंद्रमा

चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है। चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है। शंकर भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भांति प्रफुल्ल और उसी के समान खिला निःशंक होता है।

मां गंगा की जलधारा

सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है। गंगा जी यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है। मां गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं। मस्तिष्क के अंतराल में मात्र ग्रे मैटर न भरा रहे, ज्ञान- विज्ञान का भंडार भी भरा रहना चाहिए, ताकि अपनी समस्याओं का समाधान हो एवं दूसरों को भी उलझन से उबारें। वातावरण को सुख- शांतिमय कर दें। अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके। शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है। महान बौद्धिक क्रांतियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाए हुए हों। वही ब्रह्मज्ञान को धारण कर उसे लोक हितार्थ प्रवाहित कर सकता है।

तीसरा नेत्र

ज्ञानचक्षु। दूरदर्शी विवेकशीलता। जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। यह तृतीय नेत्र सृष्‍टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।

गले में सांप

शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधरों सांप का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि उनके लिए वे फायदेमन्द हो गए, उपयोगी हो गए और काटने भी नहीं पाए।

नीलकंठ

शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता। शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे। मध्यवर्ती नीति ही अपने जाये योगी पुरुष पर संसार के अपमान, कटुता आदि दुःख- कष्टों का कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें वह साधारण घटनाएं मानकर आत्मसात् कर लेता है और विश्व कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति निश्चल भाव से बनाए रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है। यही योगसिद्धि है।

मुण्डों की माला

राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं। वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है। जिस चेहरे को हम बीस बार शीशे में देखते हैं, सजाते संवारते हैं, वह मुंडों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। जिस बाहरी रंग के टुकड़ों को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि इनसान की जो खूबसूरती है उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है।

डमरु

पंडित वैभव कहते हैं कि शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित- प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार- पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेती है।

त्रिशूल 

लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला। साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला एक ऐसा अस्त्र है – त्रिशूल। यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।

बाघम्बर

शिव बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके।

भस्म

शिव बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं, ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े। मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुंथा हुआ देखता है उस पर न आक्रोश के तप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का। वह निर्विकल्प निर्भय बना रहता है।

मरघट में वास

उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। वे प्रकृतिक्रम के साथ गुँथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते तथा बसंत के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। गंदगी जो सड़न से फैलती है। काया की विधिवत् अंत्येष्टि कर दी गई तो सड़न का प्रश्न ही नहीं रहा। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।

हिमालय में वास

जीवन की कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊंचाइयों को प्राप्त करता है। जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। जैसे हिमालय में खूंखार जानवर का भय होता है वैसा ही संघर्षमयी जीवन है। शिव भक्त उनसे घबराता नहीं है उन्हें उपयोगी बनाते हुए हिमालय रूपी ऊंचाइयों को प्राप्त करता है।


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