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संस्कारशाला.. आदर्शों का पालन करके ही देश बनेगा सशक्त

देश की आजादी के दिए बलिदानों पर डाला प्रकाश सरस्वती शिशु मंदिर के प्रधानाचार्य ने विरासत में मिली आजादी को सहजकर रखने और समाज में व्याप्त कमियों को दूर करने पर दिया जोर

By JagranEdited By: Published: Wed, 15 Sep 2021 11:59 PM (IST)Updated: Wed, 15 Sep 2021 11:59 PM (IST)
संस्कारशाला.. आदर्शों का पालन करके ही देश बनेगा सशक्त
संस्कारशाला.. आदर्शों का पालन करके ही देश बनेगा सशक्त

आगरा, जागरण संवाददाता। देश को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए सतत रूप से संघर्ष करना पड़ा। आज हम जिस आजादी से खुली हवा में सांस लेते हैं, यह हमें विरासत में यूं ही नहीं मिली। देश को आजादी दिलाने के लिए देश के तमाम वीर व वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें यह दिन नसीब कराया है। स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न आदर्शों को रचा गया। वर्ष 1857 की क्रांति से प्रारंभ आजादी की ज्योति 1947 में मशाल बनकर जली और देश आजादी के प्रकाश से जगमगा उठा।

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देश के क्रांतिकारियों ने देशवासियों के लिए अलग-अलग आदर्शों को प्रस्तुत किया। चाहे वे सावित्री बाई फुले क्यों न हों, जिन्होंने महिलाओं पर हो रहे अत्याचार जैसे विधवाओं के बाल काट देने की प्रथा थी। उन्होंने इस महिमा मंडन का खंडन किया और लगातार प्रतिकार कर इस कुप्रथा से विधवाओं को आजादी दिलाई। उन्होंने पुणे में जो बाल काटते थे, उनका जुलूस निकाला, जहां सभी ने ऐसा न करने का प्रण लिया।

ठीक इसी तरह विदेशी चंगुल से मुक्ति पाने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार आंदोलन चलाया गया, जिसे आदर्श रूप में विरोध जताकर सफलता के पथ तक पहुंचाया गया। जात-पात के बंधन को तोड़ने के लिए आजादी में सभी को धीरे-धीरे ही सही, लेकिन अधिकार प्राप्त हो रहे हैं।

हालांकि 1947 के बाद की स्थिति कुछ और बयां करती है। जिन आदर्शों के दम पर हमने आजादी प्राप्त की। वे आदर्श धीरे-धीरे भुला दिए गए। उनके प्रति संवेदनाओं में हल्कापन दिखाई देने लगा। उनका पालन करना तो दूर, उनकी सुध लेने वाले तक महज चंद लोग रह गए हैं। इसका परिणाम गंभीर नजर आ रहा है। उदाहरण के लिए अफगानिस्तान को देखा जा सकता है। आज वहां की स्थिति इतनी भयावह है कि लोग अपने ही देश से आजादी पाने के लिए बचकर भागने के तरीके तलाश रहे हैं, क्योंकि उन्हीं के बीच के कुछ मौका-परस्त लोगों ने ताकत हाथ में लेकर बर्बरता शुरू कर दी। लोगों ने एकजुटता नहीं दिखाई और लाखों लोग कुछ हजार के गुलाम बनने को तैयार हो गए हैं।

जिस एकता का फल स्वतंत्रता है। कहीं वही जात-पात, रंग-भेद, ऊंच-नीच और विदेशी भाषाओं के अत्यधिक प्रयोग से परतंत्रता का प्रतिफल न बन जाए। अत: सभी देशवासियों को इस विषय में गंभीरता से चितन करते हुए स्वाधीनता संग्राम के आदर्शों को फिर से याद करते हुए एक सशक्त समाज की रचना करनी होगी, जो नैतिकता, ईमानदारी से परिपूर्ण हो और उसमें स्वार्थ का नाममात्र का स्थान न हो। तभी देश का विकास संभव हो पाएगा और हर व्यक्ति समाज में रहकर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकेगा।

कृष्णकांत द्विवेदी, प्रधानाचार्य

सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल, कमला नगर।


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