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Sharad Purnima 2020: ब्रज आएं तो यहां आना न भूलें, जहां कृष्ण ने रचा था गोपियों संग शरद के चांद में रास

Sharad Purnima 2020 मथुरा के रासौली सारस्वत कल्प की वही पवित्र भूमि है जहां प्रभु ने गोपियों के साथ छह महीने की रात्रि का निर्माण कर महारास रचाया। प्रत्येक गोपी की इच्छा थी कि शरद पूर्णिमा पर धवल चादनी में प्रभु सिर्फ उसके साथ नृत्य करें।

By Tanu GuptaEdited By: Published: Mon, 26 Oct 2020 04:04 PM (IST)Updated: Mon, 26 Oct 2020 04:04 PM (IST)
Sharad Purnima 2020: ब्रज आएं तो यहां आना न भूलें, जहां कृष्ण ने रचा था गोपियों संग शरद के चांद में रास
मथुरा के रासौली सारस्वत में कृष्ण ने रचा था गोपियों संग महारास।

आगरा, जेएनएन। दिव्य स्थलों से सजी ब्रज वसुंधरा का हिस्सा परासौली सारस्वत कल्प की वही पवित्र भूमि है, जहां प्रभु ने गोपियों के साथ छह महीने की रात्रि का निर्माण कर महारास रचाया। प्रत्येक गोपी की इच्छा थी कि शरद पूर्णिमा पर धवल चादनी में प्रभु सिर्फ उसके साथ नृत्य करें। एक रूप में गोपियों की इच्छा पूर्ण न होते देख श्रीकृष्ण ने गोपियों की गिनती के अनुसार ही रूप धारण किए और सभी को अपने सानिध्य का अहसास कराया। बाकी सभी लीलाओं को रास का नाम दिया जाता है, जबकि सिर्फ इसी लीला को महारास की पदवी प्राप्त है।

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क्‍या कहते हैं इतिहास के पन्‍ने

बांसुरी की धुन पर गोपियों को अपने पास बुला भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रत्येक को अपनत्व का अहसास कराने वाली लीला महारास का इतिहास ब्रजभूमि की दिव्यता और पावनता पर अमिट छाप छोड़ती है। कामदेव का अहंकार चूर करने के लिए किया गया महारास कान्हा के जीवन का वो अभिन्न हिस्सा है, जिसके बिना राधाकृष्ण के प्रेम की कल्पना अधूरी ही रह जाएगी। ब्रज का इतिहास प्रेम के रंग से सराबोर है। महारास प्रेम का उच्चतम और पवित्र शिखर है, जहां कई आत्माओं के एक दूसरे में समाहित होकर भी कामदेव विजय प्राप्त नहीं कर सके। दिव्य स्थलों से सजी ब्रज वसुंधरा का हिस्सा परासौली वही पवित्र भूमि है, जहां सारस्वत कल्प में भागवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ छह महीने की रात्रि का निर्माण कर महारास रचाया। गोवर्धन से भरतपुर मार्ग पर दो किमी दूर स्थित परासौली महारास स्थली के साथ ही महाकवि सूरदास की साधना स्थली के रूप में भी विख्यात है। भागवत किंकर गोपाल प्रसाद उपाध्याय के अनुसार ब्रज की प्रत्येक गोपी कन्हैया का सामीप्य पाने की चाहत रखती हैं। भक्तों की प्रत्येक अभिलाषा पूर्ण करने वाले भक्त वत्सल भगवान रास विहारी ने उनकी मनोदशा समझकर सभी गोपियों को बांसुरी की मधुर तान छेड़कर परासौली में एकत्रित किया।

बांसुरी की धुन से आकर्षित होकर गोपियां घर- बार त्याग कर रासमंडल में टेढ़ी टांग पर खड़े कान्हा के पास पहुंच गईं। प्रत्येक गोपी की इच्छा थी कि शरद पूर्णिमा पर धवल चांंदनी में श्याम सुंदर सिर्फ उसके साथ नृत्य करें। यह प्रसंग श्रीमद्भागवतजी के दशम स्कंध के उन्तीस से तेतीस वें अध्याय तक वर्णित है। जिसको रास पंचाध्यायी के नाम से भी जाना जाता है। प्रसंग में वर्णन आता है कि गोपियों के रास मंडल में इकठ्ठा होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण दस श्लोक में वेद मर्यादा का उपदेश देते हैं। गोपियां अपने प्रेम को परिभाषित करने के लिए ग्यारह श्लोक में श्रीकृष्ण की बात को खंडन कर रास प्रारम्भ करने का अनुरोध करती हैं। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रास प्रारम्भ करते हैं। एक रूप में गोपियों की इच्छा पूर्ण न होते देख गोविंद ने गोपियों की गिनती के अनुसार ही अनेक रूप धारण किए और सभी गोपियों को अपने सामीप्य का अहसास कराया। महारास की यही खास बात है कि जितनी गोपी, उतने कन्हैया के नृत्य करते हुए दर्शन होते हैं। रास के समय उन्मुक्त होकर नृत्य करती गोपियों को अपने वस्त्र और आभूषण की सुध नहीं रही तो कन्हैया कभी किसी गोपी को ओढनी उड़ाते तो किसी की पायल बांधते। यह देख गोपियों को सौभाग्य का अहंकार आ गया। अहंकार चूर करने वाले श्रीकृष्ण अहंकार देख रास के मध्य से श्रीराधारानी के साथ अंतर्ध्यान हो गए। गोपियां उस विरह की अवस्था में मृतप्रायः सी हो गई। समयानुसार अपने को संभाल पागलों की तरह कन्हैया को इधर उधर खोजने लगी। कभी पेड़ पौधों से तो कभी जीव जंतुओं से कान्हा का पता पूछती। खोजते समय उन्हें राधारानी मिल गई, राधारानी के समझाने पर गोपियों ने राधारानी के साथ कन्हैया को दुबारा बुलाने की अभिलाषा से यमुनाजी के किनारे एक गीत गाया। जो भक्ति के क्षेत्र में गोपी गीत के नाम से जाना जाता है। यह गीत श्रीमद्भागवतजी के दशम स्कंध के 31वे अध्याय में है। गीत गाने के बाद भी कन्हैया नहीं आए तो असहाय गोपियां रोने लगीं और भगवान रास विहारी से गोपियों की यह अवस्था देखी नहीं गई तथा श्रीकृष्ण ने आकर दुबारा जल रास, वन रास, स्थल रास किया। शरद पूर्णिमा पर महारास स्थली को विशेष रूप से सजाकर पर्व मनाया जाता है।

महारास लीला कोई साधारण लीला नहीं है, विद्वान आचार्य इसको काम विजय लीला के नाम से भी परिभाषित करते हैं। कथा के अनुसार कामदेव भरसक प्रयास करने के बाद भी गोपियों से घिरे श्रीकृष्ण के मन को चलायमान नहीं कर सके।

ठहर गए थे चंद्रदेव

महारास के दौरान भगवान श्रीकृष्ण की आभा ने तीनों लोकों को मुग्ध कर दिया। भागवत किंकर गोपाल प्रसाद उपाध्याय ने श्रीमद्भागवत का उल्लेख करते हुए बताया कि महारास की दिव्यता को देखकर समय ठहर गया। वहीं चंद्रमा भी अपने स्थान को नहीं छोड़ पाए रात्रि ढलने का नाम नहीं ले रही थी। छह महीने तक चंद्रमा अपने स्थान से एकटक महारास को निहारते रहे। चंद्रमा के द्रवित रस से ही पारासौली में चंद्र सरोवर का निर्माण हो गया। वाराह पुराण में पारसौली का परस्पर वन नाम उल्लिखित है। गर्ग संहिता में चंद्र सरोवर का विशेष महात्म्य बताया गया है।

गोपिका बन गए भगवान शिव

भगवान श्रीकृष्ण के महारास को देखने के लिए भगवान शिव भी स्वयं यहां आए, लेकिन पुरुष होने की वजह से गोपियों ने भगवान शिव को दरवाजे पर ही रोक दिया। उन्हें यह कहकर लौटा दिया गया कि यहां सिर्फ गोपियां ही इस महारास में सम्मिलित हो सकती हैं। भगवान शिव बड़े व्याकुल हुए और इस अद्भुत पल को देखने के लिए उन्होंने एक सखी का रूप धारण कर लिया और वहां पहुंच गए। भगवान शिव का यही रूप गोपेश्वर कहलाया।

बलभद्र ने पर्वत से देखा महारास

बलभद्र कान्हा से बड़े होने के कारण महारास में शामिल हो नहीं सकते थे। बलदाऊ गोवर्धन पर्वत के ऊपर खड़े हो गए और महारास का दर्शन करने लगे। इसी दौरान किसी गोपी की नजर पड़ी और उसने आवाज लगाई, देखो तो बलदाऊ खड़े हैं। गोपियां जैसे ही देखने लगी तो बलदाऊ शेर का स्वरूप धारण कर बैठ गए और सभी भ्रम समझ कर फिर रासलीला में लग गए। यह भी मान्यता है कि नारद जी महारास की लीला को देखने को इतने उत्सुक थे कि नारदी गोपी बनकर लीला में प्रवेश कर गए।


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