जानते हैं आप, झूठ पकड़ने की मशीन होता है पॉलीग्राफी टेस्ट, पढ़ें क्या है इतिहास Agra News
पॉलीग्राफी टेस्ट के जरिए व्यक्ति यदि किसी सवाल का गलत जवाब देता है तो उसकी जानकारी हो जाती है।
आगरा, जेएनएन। मैनपुरी दुष्कर्म- हत्याकांड में पांच आरोपितों के पॉलीग्राफी टेस्ट की प्रक्रिया चल रही है। इसे झूठ पकडऩे की मशीन भी कहा जाता है। पॉलीग्राफी टेस्ट के जरिए व्यक्ति यदि किसी सवाल का गलत जवाब देता है तो उसकी जानकारी हो जाती है। हालांकि इस टेस्ट को बहुत अहम मामलों में आवश्यक पडऩे पर ही कराया जाता है और इसके लिए न्यायालय की अनुमति लेनी होती है।
पॉलीग्राफी टेस्ट का इतिहास
जानकारों के मुताबिक सन् 1730 में ब्रिटिश उपन्यासकार डैनियल डिफो ने एक निबंध लिखा था। इसके अंदर पॉलीग्राफी टेस्ट का जिक्र किया था। बताया जाता है कि इसके बाद 1878 में इटली के फीजियोलॉजिस्ट एंजेलो मोसो ने भी एक ऐसा ही यंत्र इस्तेमाल किया था। हालांकि आधुनिक मशीन 1921 में बनी। इसका आविष्कार अमेरिका के कैलीफोर्निया निवासी जॉन अगस्तस लार्सन ने किया था। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया से मेडिकल की पढ़ाई की थी और वे कैलीफोर्निया के बर्कले पुलिस स्टेशन में कार्यरत थे।
ऐसे होता है टेस्ट
झूठ का पता लगाने के लिए पॉलीग्राफी मशीन को व्यक्ति के शरीर से जोड़ा जाता है। व्यक्ति से से अटैच किए गए सेंसर्स से मिलने वाले सिग्नल को मशीन में लगे ग्राफ पेपर पर रिकॉर्ड किया जाता है। इस प्रक्रिया को पॉलीग्राफी टेस्ट कहते हैं।
ऐसे काम करती है मशीन
विशेषज्ञों के मुताबिक व्यक्ति के शरीर से छह सेंसर जोड़े जाते हैं। इनके जरिए सवाल-जवाब के दौरान संबंधित व्यक्ति की सांस लेने की गति, नब्ज की गति, रक्तचाप, शरीर से निकलने वाले पसीना व हाथ-पैरों की हरकत को रिकार्ड किया जाता है। जानकारों के मुताबिक जब व्यक्ति से कोई सवाल किया जाता है और वह झूठ बोलता है तो उसके दिमाग से विशेष सिग्नल निकलता है। जिसके कारण उसकी हृदय गति व रक्तचाप भी बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति से उसका नाम पूछा जाए और वह अपना गलत नाम बताता है तो ग्राफ पेपर पर अंकित सिग्नल से प्रश्न करने वाले को इसकी जानकारी हो जाती है।