Pitra Paksha 2020:पुत्र− पौत्रों द्वारा किया गया श्राद्ध ही क्यों लगता है पितरों को? जानिए क्या है ये प्रथा
Pitra Paksha 2020श्राद्ध की क्रिया भौतिक अनुष्ठान की स्मृति तथा ज्ञान से और कर्ता के वर्तमान को अतीत और भविष्य से जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण सेतु बन जाती है।
आगरा, जागरण संवाददाता। श्राद्ध पक्ष के दौरान एक बात बार बार उठती रही है। बराबरी की मांग उठाने वाले समाज में महिलाअों को भी श्राद्ध कर्म करने की छूट मांगी जाती रही है। जबकि सनातन धर्मालंबी सिर्फ पुत्र एवं पौत्रों को ही ये अधिकार देते रहे हैं। इस प्रश्न के बाबत धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी का कहना है कि धर्म के चार प्रमुख अंग हैं वेद, स्मृति, सदाचार और अनुकूलता। चारों अंग ज्ञान को व्यवहारिक जगत में मनुष्य के दैनिक आचरण से गूंथते रहते है। निरंतरता (सना-तनता) धर्म का मूल गुण है और इसी के अंतर्गत मनुष्य को अपने आपको अपनी तीन परिवर्ती (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र) और तीन पूर्ववर्ती (पिता, पितामह और प्रपितामह) पीढ़ियों के साथ एक पिण्ड का भागीदार माना गया है। श्राद्ध के अनुष्ठान् में श्राद्धकर्ता श्रद्धा पूर्वक बुद्धि और स्मृति को ठोस भौतिक आचार से जोड़ कर अपने पहले की तीन पूर्ववर्ती पीढ़ियों के सूक्ष्म शरीर धारी पितरों को अन्न से बना पिण्ड देता है। साथ ही उस पिण्ड को सूंघ कर सूक्ष्मरूप में स्वयं भी आत्मसात् करता है और प्रार्थना करता है कि इस क्रिया से उसकी आने वाली ( परिवर्ती) पीढियां भी समृद्ध, कर्मठ और बुद्धिमान बनें। इस तरह से श्राद्ध की क्रिया भौतिक अनुष्ठान की स्मृति तथा ज्ञान से और कर्ता के वर्तमान को अतीत और भविष्य से जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण सेतु बन जाती है।
हमारे मृत पूर्ववर्ती जन जो पितर बन चुके हैं, उनको हम स्थूल इन्द्रियों से नहीं, सूक्ष्म बुद्धि से जानते हैं और अनुभव करते हैं। यह माना जाता है कि हमारे शरीर के कोशों के रूप में हमारे पास अभी भी बने हुए हैं। उनका स्थूल शरीर भले ही नष्ट हो गया हो लेकिन उनके पुत्र-पौत्रों के शरीरों के कोशों के रूप में वे आज भी भौतिक रूप में जीवित हैं। उनकी सन्तान उनके भाव शरीर का स्मरण करती है और श्राद्ध उपरान्त उनकी तथा आनेवाली पीढ़ियों की तृप्ति की कामना करती है ताकि हमारा गोत्र बढे, हमें सुख-समृद्धि देने वाले देवता बढ़ें, वेद रूप ज्ञान की वृद्धि हो, सन्तान की वृद्धि हो, श्राद्ध हमसे कभी अलग न हो, हमारे पास दान देने के लिए प्रचुर सामग्री हो और अतिथि सत्कार का लाभ हमें मिलता रहे। लोग हमसे मांगें, हमें लोगों से मांगना न पड़े-- यह मंगल कामना पूर्ण हो। श्राद्धकृत्य का मुख्य कर्म श्रद्धा माना गया है। श्रद्धा अर्थात्--पवित्र आस्था। जिसमें आस्था नहीं, वह श्राद्ध करने का अधिकारी नहीं होता है।
कौन सा श्राद्ध है मान्य
कात्यायन ऋषि के अनुसार शाक-सब्जी से भी किया गया श्राद्ध स्वीकार होता है। अपनी सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुसार श्राद्ध अच्छे से अच्छा करना चाहिए। पर अभाव की स्थिति में शाक-सब्जी से भी किया गया श्राद्ध स्वीकार होता है। इसके विपरीत यदि श्रद्धा नहीं है तो धन खर्च करने पर भी वह पूर्वजों को स्वीकार नहीं होता। वह निष्फल हो जाता है। श्रद्धा मन का पवित्र भाव होता है और भाव जगत के प्राणी (पितर) हमारे श्रद्धा-अश्रद्धा के भावों को तत्काल जान-समझ जाते हैं।
प्राचीन काल में श्राद्धों में पशुबलि दी जाती थी। इसका रहस्य क्या था?--पता नहीं। वह कालान्तर में लुप्त हो गई। उसकी जगह अब खड़ी उड़द की दाल और आटे की बनी पशु आकृति अर्पित की जाती है। माना जाता है कि पिता पुत्र का और बड़ा भाई छोटे भाई का श्राद्ध नहीं कर सकता। लेकिन यदि ज़रूरत पड़े तो यह श्राद्ध भी किया जा सकता है। किसी को भी किसी का भी स्नेहवश श्राद्ध करने की अनुमति है विशेषकर गया में। आपातकाल में उपनयनहीन पुत्र भी अंत्येष्टि से जुड़े मन्त्रों का उच्चारण ब्राह्मण के माध्यम से कर सकता है।