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न नाम, न पता याद, ऐसे बिछुड़े लोगों को घर तक पहुंचाने के लिए बन जाते हैं शेरलॉक होम्‍स

मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय ने दो सालों में 30 लावारिस मरीजों को पहुंचाया उनके स्वजनों तक। सवालों और सूत्रों की मदद से खोजते हैं स्वजन और पता। बहुत से लोग अपने ही परिवार के लोगों को बिना नाम पता बताए छोड़ जाते थे अस्‍पताल में।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Sun, 05 Sep 2021 09:04 AM (IST)Updated: Sun, 05 Sep 2021 09:04 AM (IST)
न नाम, न पता याद, ऐसे बिछुड़े लोगों को घर तक पहुंचाने के लिए बन जाते हैं शेरलॉक होम्‍स
आगरा के मानसिक चिकित्‍सालय के चिकित्‍सकों को मरीज का पता निकालने के लिए जासूस बनना पड़ता है। प्रतीकात्‍मक फोटो

आगरा, प्रभजोत कौर। मध्य प्रदेश के सतना के पास के एक गांव की महिला मानसिक रूप से कमजोर थी। वो अपने दो साल के बच्चे को लेकर ट्रेन में बैठ गई। ट्रेन आगरा कैंट रेलवे स्टेशन पर रूकी। महिला अपने बच्चे के साथ कैंट रेलवे स्टेशन पर उतर गई। पुलिस ने महिला और बच्चे को मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय पहुंचाया। तीन महीने तक इलाज के बाद महिला का मानसिक स्तर बात करने लायक हुआ तो चिकित्सकों ने उससे उसके घर का पता और स्वजनों की जानकारी के लिए सवाल किए। महिला सही पता नहीं बता पाई लेकिन अपने गांव के मंदिर और बाजार की कुछ बातें बताईं। इन बातों के आधार पर संस्थान के चिकित्सकों ने इंटरनेट पर सर्च किया। संबंधित थाने में बात की। गांव के प्रधान से संपर्क किया। महिला की फोटो साझा की गई। पुष्टि होने पर स्वजनों को बुलाकर शिनाख्त कराई गई। फिर अभिलेखों की जांच हुई। कोर्ट के माध्यम से महिला की कस्टडी स्वजनों को दी गई। महिला के इलाज के दौरान उसका बच्चा राजकीय शिशु गृह में रहा।

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यह पूरी प्रक्रिया हर उस मरीज के साथ अपनाई जाती है जो लावारिस स्थिति में घूमते मिलते हैं और पुलिस के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय में भेजे जाते हैं। इन मरीजों के घर का पता लगाने के लिए संस्थान की टीम शेरलॉक होम्स बन जाती है। मतलब, क़ड़ी से कड़ी जोड़ी जाती है। मरीज कहां मिला, उसके कपड़े, उसके सामान, उससे सवाल आदि के आधार पर उसके घर तक पहुंचते हैं। पिछले दो सालों में ऐसे ही 30 मरीजों के स्वजनों तक संस्थान पहुंचा चुका है।

हो गई है सख्ती

मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय में मानसिक बीमारियों का इलाज होता है। कई साल पहले तक यहां लोग अपने मानसिक रूप से परेशान स्वजनों को भर्ती करा जाते थे। गलत पता लिखा देते थे, जिससे उन तक कोई पहुंच ही नहीं पाए। पर अब सख्ती हो गई है। मरीज को भर्ती करने से पहले परिवार के सदस्यों के आधारकार्ड, फोन नंबरों की सूची, पहचान पत्र आदि जमा कराए जाते हैं।

इन बिंदुओं पर की जाती है पड़ताल

- व्यक्ति कहां मिला? अगर रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर मिला तो सबसे पहले किसने देखा, उस समय कौन-कौन से रूट से बसें या ट्रेन आती हैं।

- कपड़ों पर अगर कोई टैग लगा है तो वो कहां का है? अगर पैंट या कमीज पर किसी दर्जी का टैग है तो उससे पहचान निकाली जाती है।

- वो व्यक्ति अगर सिर्फ अपना नाम बता रहा है तो आसपास के शहरों से जानकारी की जाती है कि कहीं किसी थाने में उस नाम के व्यक्ति की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज है।

- उससे लगातार बात की जाती है, बातचीत में कई बार मरीज कुछ न कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जो उनके घर का पता ल गाने में चिकित्सकों की मदद करता है।

- मरीज से उसके पसंद की खाने-पीने की चीजें पूछी जाती हैं। उदाहरण के तौर पर मरीज ने कहा कि मुझे गोलगप्पे पसंद है तो कहां के पसंद हैं? मरीज अगर जगह बता देता है तो उस जगह या गोलगप्पे वाले की खोज की जाती है।

संस्थान में चिकित्सकों और कर्मचारियों की पूरी टीम मानसिक रूप से कमजोर मरीजों को उनके स्वजनों तक पहुंचाने के लिए बहुत मेहनत करती है। हमने एक सिस्टम तैयार किया है, इसमें कई तरह के सवालों के अलावा हमारे अपने सूत्र भी हैं। इंटरनेट की भी मदद ली जाती है।

- डा. दिनेश राठौर, चिकित्सा अधीक्षक, मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय


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