एक विधायक ऐसा भी जो विधायकी छोड़ बन गया था मुनि
आदिवासियों की सेवा को बाबूलाल ने दिया था विधायकी से इस्तीफा। विनोबा भावे के कहने पर ओडिशा में करने लगे आदिवासियों की सेवा।
आगरा, संजीव जैन। ये आज की सियासत को आइना दिखाती हकीकत है। चुनाव लडऩे और सत्ता हासिल करने के लिए नेता परेशान हैं। लेकिन आगरा में एक विधायक ऐसे भी हुए, जिन्हें कभी सत्ता से मोह नहीं रहा। जनता ने विधायक बनाया, लेकिन एक साल बाद ही विधायकी से इस्तीफा देकर वह समाज की सेवा में लग गए।
आगरा के चित्ती खाना में रहने वाले बाबूलाल मीतल वर्ष 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में आगरा पूर्व से कांग्रेस के टिकट पर भारी मतों से चुने गए। सार्वजनिक जीवन जीने के पक्षधर मीतल ने चुनाव में एक पैसा भी अपने पास से खर्च नहीं किया। चंदे के रूप में जो मिला, उसी से चुनाव लड़ा। वह विधायक तो बन गए, लेकिन उनका मन समाजसेवा में रमता था, इसलिए राजनीति रास नहीं आई। एक वर्ष बाद ही वह अज्ञातवास में चले गए। परिजनों और मित्रों ने काफी खोज की। पता चला कि वह ओडिशा के कोरापुट में आचार्य विनोबा भावे के कहने पर आदिवासियों की जीवन दशा बेहतर करने में जुटे हैं। उन्होंने कोरापुट से ही विधायकी से त्यागपत्र भी भेज दिया।
मीतल के जीवन में आए इस बदलाव से उनके परिजन और साथी चकित थे। विधायकी से इस्तीफा बड़ा फैसला था, लेकिन उससे भी बड़ा था, संत बनकर विनोबा भावे की शरण में जाना। यही कारण था कि विनोबा भावे मीतल को मुनि कहकर पुकारते थे।
उनके साथ रहे गांधीवादी विचारक व बालूगंज निवासी शशि शिरोमणि बताते हैं कि वर्ष 1900 में आगरा में वैष्णव संस्कारी परिवार में जन्मे मीतल ने बचपन से ही संघर्ष किया। जन्म के ढाई वर्ष बाद पिता और चार वर्ष बाद माता का निधन हो गया। विवाह के तीन वर्ष बाद पत्नी के निधन का दंश झेलना पड़ा। दुख यहीं खत्म नहीं हुए। एकमात्र पुत्री भी दुनिया से चल बसी। 26 वर्ष की उम्र में आते-आते मीतल का पारिवारिक संसार ही उजड़ गया।
शशि शिरोमणि बताते हैं कि मीतल ने आयकर वकालत शुरू की और पैतृक आवास छोड़कर सुभाष बाजार में अपने मित्र कैलाश नाथ भार्गव के यहां रहने लगे। आजादी के आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1920 के बाद जितने भी आंदोलन हुए, उनमें हिस्सा लिया।
तब पहली बार गए थे जेल
9 अगस्त 1942 को सबसे पहले पुलिस ने मीतल को गिरफ्तार किया। उनकी गिरफ्तारी और अंग्र्रेजों के दमनचक्र के खिलाफ मोतीगंज में लोगों ने जुलूस निकाला। पुलिस की गोली से आंदोलनकारी परशुराम शहीद हो गए थे।