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Lunar and Solar Eclipse 2020: ग्रहणकाल में कुशा बेहद अहम, ऐसे करें प्रयोग, रखें इन बातों का ध्‍यान

Lunar and Solar Eclipse 2020 कुशा ऊर्जा का कुचालक है। ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैंं।

By Tanu GuptaEdited By: Published: Wed, 03 Jun 2020 03:00 PM (IST)Updated: Fri, 05 Jun 2020 01:04 AM (IST)
Lunar and Solar Eclipse 2020: ग्रहणकाल में कुशा बेहद अहम, ऐसे करें प्रयोग, रखें इन बातों का ध्‍यान
Lunar and Solar Eclipse 2020: ग्रहणकाल में कुशा बेहद अहम, ऐसे करें प्रयोग, रखें इन बातों का ध्‍यान

आगरा, तनु गुप्‍ता। जून- जुलाई के मध्‍य तीन ग्रहण लगने जा रहे हैं। पांच जून को चंद्र ग्रहण, 21 जून को सूर्य ग्रहण और फिर पांच जून को चंद्र ग्रहण लगेगा। ग्रहण काल से पहले ही सूतक लग जाते हैं। ग्रहण के दौरान निकलने वाली नकारात्‍मक ऊर्जा से बचाव के सभी उपाय किये जाते हैं। मंदिरों से लेकर घरों तक हर वस्‍तु की शुद्धि के लिए तमाम साधन उपयोग में लाए जाते हैं। इन्‍हीं साधनों में सबसे अहम है कुशा का प्रयोग। ग्रहण काल में हर वस्‍तु में कुशा डालने की मान्‍यता है। कुशा का महत्‍व सनातन धर्म के साथ ही वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत अधिक है। कुशा के विज्ञान पर शोध करने वाले धर्म विज्ञान शोध संस्‍थान, उज्‍जैन के निदेशक डॉ जे जोशी ने फोन पर हुई बातचीत में कुशा के महत्‍व और ग्रहणकाल में प्रयोग के बारे में जानकारी दी।

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ग्रहणकाल में ऐसे करें प्रयोग

डॉ जे जोशी के अनुसार शोधों से यह पता चला है कि कुशा ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन और पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैंं। भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। इस दौरान व्‍‍यक्ति को कुशा का तिनका अपने शरीर से स्‍पर्श करते हुए भी रखना चाहिए। पुरुष अपने कान के ऊपर कुशा का तिनका लगा सकते हैं वहीं महिलाएं अपनी चोटी में इसे धारण करके रखें। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है।

धर्म में महत्‍व

डॉ जे जोशी ने बताया कि कुश या कुशा से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान और पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है। अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्‍व से युक्त है। यह पौधा पृथ्वी का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।

प्रयोग में रखें इन बातों का ध्‍यान

देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।

कुशा आसन की महत्ता

कुशा से बने आसन पर बैठ कर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। भाद्रपद कृष्ण अमावस्या को लायी गयी कुशा वर्ष भर तक पवित्र रहती है। 


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