Symbol of Hope: जीने का बनाया बस यही सहारा, बेसहारा बच्चों के जीवन में भर रहे उजियारा
कुुुुष्ठ रोग पीडि़तों के बच्चों को पढ़ाने का उठा लिया संघ के पूर्व प्रचारक कुलदीप ने जिम्मा। लोगों की मदद से 15 बच्चों को पढ़ाने के साथ रहने और खाने की उठा रहे जिम्मेदारी।
आगरा, मनोज चौहान। दो दशक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनकर आए कुलदीप गुप्ता को मथुरा की माटी की महक ऐसी भायी कि बेसहारा बच्चों को पढ़ाने का संकल्प ले लिया। अब प्रचारक भले ही नहीं रहे, लेकिन कुष्ठ रोग से ग्रसित मां-बाप के बेबस बच्चों के लिए कुलदीप अभिभावक भी हैं और शिक्षक भी। आठ साल पहले रोपा सेवा का ये पौधा आज वटवृक्ष बन गया है।
सेवा का बीज बोया है एटा, उप्र के कुलदीप ने। बचपन से संघ से जुड़े कुलदीप को वर्ष 1998 में मथुरा में संघ के प्रचारक की जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 2004 में अस्वस्थ होने पर वापस घर लौट गए, प्रचारक के दायित्व से मुक्त हो गए।
स्वस्थ होने पर उनकी मुलाकात कासगंज के कछला में कुष्ठ रोग से ग्रस्त एक दंपती से हुई। वह कमाने में असमर्थ थे, ऐसे में उनके दो बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा कुलदीप ने उठा लिया। दो अन्य कुष्ठ रोगियों के बच्चों समेत पांच बच्चों को लेकर वह मथुरा आ गए। धौलीप्याऊ निवासी मित्र चंद्रमोहन अग्रवाल से रहते हैं, उनसे अनुरोध कर उनके खाली मकान को आसरा बनाया। यहां करन, अभय और अभिषेक समेत पांच बच्चों के साथ रहकर उनकी पढ़ाई शुरू कराई। कुलदीप बताते हैं कि विद्याभारती द्वारा संचालित स्कूलों में बच्चों के निश्शुल्क अध्ययन की व्यवस्था तो हो गई, लेकिन समस्या बच्चों के खाने व कपड़ों का इंतजाम करने की थी। ऐसे में करीबी लोगों से संपर्क किया। उनका लक्ष्य नेक था, ऐसे में साथियों ने भी नियमित मदद का आश्वासन दिया। आखिर बच्चों की पढ़ाई शुरू हुई। धीरे-धीरे बच्चों के नाते-रिश्तेदारों ने एक-दूसरे से संपर्क किया और फिर बच्चों की संख्या यहां बढऩे लगी। अब बच्चों की संख्या 15 है।
कुलदीप बताते हैं कि इनमें दो बच्चे झारखंड के रहने वाले हैं, तो दो दिल्ली और एक उत्तराखंड का। बाकी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों के हैं। यह सभी कुष्ठ रोगियों के बच्चे हैं। मदद करने वालों की संख्या भी बढ़कर करीब 80 हो गई है। अब बच्चों को नया ठिकाना डैंपियरनगर का शांति अपार्टमेंट है। बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं, घर पर पढ़ाने ट्यूयर भी आता है। खुद भी पढ़ाते हैं।
कुलदीप कहते हैं कि इससे ज्यादा सुकून भला क्या होगा कि बेसहारा बच्चों की जिंदगी में अब शिक्षा का उजियारा फैल रहा है। कुलदीप के मुताबिक उनके परिवार में माता-पिता के अलावा भाई भी हैं, लेकिन उनका परिवार अब यह बच्चे ही हैं। कछला से जिन पांच बच्चों को वह अपने साथ सबसे पहले लाए थे, उनमें करन, अभिषेक और अभय नौवीं कक्षा में पढ़ रहे हैं। जबकि दो बच्चे पारिवारिक कारणों से बाद में अपने घर कछला लौट गए और फिर परिवार कछला छोड़कर कहीं और चला गया।