साधना को सार्थक करने का माध्यम हैं मंत्र, जानिए क्या है इसका वैज्ञानिक आधार
मंत्र में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का एक निश्चित भाररूपआकरप्रारूप शक्ति गुणवत्ता और रंग होता हैं।
आगरा, तनु गुप्ता। दुनियावी तनाव से मुक्ति का सार्थक माध्यम है मंत्रों का जाप। बचपन से हम घर में गायत्री, महामृत्युंज्य आदि मंत्रों का जाप सुनते आए हैं। कोई विशेष पूजा हो तो मंत्रोच्चारण। सनातन धर्म के सोलह संस्कार बिना मंत्रोच्चारण के पूर्ण नहीं होते तो कोई हवन ऐसा नहीं जब मंत्र नहीं बोले जाते। सनातन धर्म में मान्यता है कि बिना गुरु मंत्र के जीवन सफल नहीं होता। कई बार लोगों को हाथ में मनकों की माला लिए जाप करते हुए देखा ही होगा लेकिन आखिर ये मंत्र हैं क्या और क्या है इनके पीछे की शक्ति की वजह, यह सवाल कई बार मन के किसी कोने में चलता जरूर होगा। मंत्रों की शक्ति और उनका वैज्ञानिक आधार विषय पर उज्जैन के धर्म विज्ञान शोध संस्थान में गहन शोध किया गया है। आगरा आए संस्थान के धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी से जागरण डॉट कॉम ने इस बाबत बात की और जाना मंत्र शक्ति का महत्व।
मंत्र क्या हैं ?
पंडित वैभव जोशी के अनुसार मनन करने से जो त्राण करता हैं, रक्षा करता हैं उसे ही मंत्र कहते हैं। मंत्र शब्दात्मक होते हैं। मंत्र सात्त्विक, शुद्ध और आलौकिक होते हैं। अंत- आवरण हटाकर बुद्धि और मन को निर्मल करतें हैं। मन्त्रों द्वारा शक्ति का संचार होता हैं और उर्जा उत्पन्न होती हैं। आधुनिक विज्ञान भी मंत्रों की शक्ति को अनेक प्रयोगों से सिद्ध कर चुका हैं। समस्त संसार के प्रत्येक समुदाय, धर्म या संप्रदाय के अपने-अपने विशिष्ट मंत्र होतें हैं। अनेक संप्रदाय तो अपने विशिष्ट शक्तियों वाले मन्त्रों पर ही आधारित हैं।
धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी
मन्त्रों की प्रकृति
मंत्र का सीधा सम्बन्ध ध्वनि से है इसलिए इसे ध्वनि -विज्ञान भी कहतें हैं। पंडित वैभव शोध के आधार पर कहते हैं कि ध्वनि प्रकाश, ताप, अणु- शक्ति, विधुत -शक्ति की भांति एक प्रत्यक्ष शक्ति हैं। विज्ञान का अर्थ है सिद्धांतों का गणितीय होना। मन्त्रों में अक्षरों का एक विशिष्ट क्रमबद्ध, लयबद्ध और वृत्तात्मक क्रम होता हैं। इसकी निश्चित नियमबद्धता और निश्चित अपेक्षित परिणाम ही इसे वैज्ञानिक बनातें हैं। मंत्र में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का एक निश्चित भार, रूप, आकर, प्रारूप, शक्ति, गुणवत्ता और रंग होता हैं। मंत्र एक प्रकार की शक्ति हैं जिसकी तुलना हम गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकीय-शक्ति और विद्युत -शक्ति से कर सकते हैं। प्रत्येक मंत्र की एक निश्चित उर्जा, फ्रिक्वेन्सि और वेवलेंथ होती हैं।
अधिष्ठाता - देव या शक्ति
पंडित वैभ्व बताते हैं कि प्रत्येक मंत्र का कोई न कोई अधिष्ठाता - देव या शक्ति होती हैं। मंत्र में शक्ति उसी अधि- शक्ति से आती है। मंत्र सिद्धि होने पर साधक को उसी देवता या अधि-शक्ति का अनुदान मिलता हैं। किसी भी मंत्र का जब उच्चारण किया जाता हैं तो वो वह एक विशेष गति से आकाश - तत्व के परमाणुओं के बीच कम्पन पैदा करते हुए उसी मूल -शक्ति / देवता तक पहुंचतें हैं, जिससे वह मंत्र सम्बंधित होता हैं। उस दिव्य शक्ति से टकरा कर आने वाली परावर्तित तरंगें अपने साथ उस अधि -शक्ति के दिव्य- गुणों की तरंगों को अपने साथ लेकर लौटती हैं और साधक के शरीर, मन और आत्मा में प्रविष्ट कर उसे लाभान्वित करतीं हैं।
मंत्रों की गति करने का माध्यम
ध्वनि एक प्रकार का कम्पन हैं। प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन पैदा करता हैं।पंडित वैभव जोशी कहते हैं कि ध्वनि तरंगें एक प्रकार की मैकेनिकल वेव्स होती हैं। इन तरगों को यात्रा करने के लिए एक माध्यम की आवश्कता पड़ती हैं जो ठोस,तरल या वायु रूप में हो सकती हैं। हमारे द्वारा बोले गये साधारण शब्द वायु माध्यम में गति करतें हैं और वायु के परमाणुओं के प्रतिरोध उत्पन्न करने के कारण इन ध्वनि तरंगों की गति और उर्जा बाधित होती हैं। मन्त्रों की स्थूल ध्वनि -तरंगें वायु में व्याप्त अत्यंत सूक्ष्म और अति संवेदनशील ईथर -तत्व में गति करती हैं।ईथर - माध्यम के परमाणु अत्यंत सूक्ष्म और संवेदनशील होतें हैं। इसमें गति करने वाली ध्वनी तरंगें बिना अपनी शक्ति- खोये काफी दूर तक जा सकती हैं लेकिन मंत्र की सूक्ष्म - शक्ति आकाश में स्थित और अधिक सूक्ष्म तत्व जिसे मानस-पदार्थ कहतें हैं में गति करतीं हैं। वायु और ईथर के कम्पन्नों की अपेक्षा मानस-पदार्थ के कम्पन्न कभी नष्ट नहीं होते हैं और इसमें किये गए कम्पन्न अखिल ब्रह्माण्ड की यात्रा कर अपने इष्ट -देव तक पहुंच ही जातें हैं। अतः प्रत्येक मंत्र की शब्द - ध्वनियां एक साथ वायु, ईथर और मानस-माध्यमों में गति करतीं हैं।
मन्त्रों की गति
प्रत्येक मंत्र साधक और उस मंत्र के अधिष्ठाता - देव के मध्य एक अदृश्य सेतु का कार्य करता है। साधारण बोले गए शब्दों की ध्वनि - तरंगें वातावरण में प्रत्येक दिशा में फ़ैल कर सीधे चलतीं हैं। लेकिन मन्त्रों में प्रयुक्त शब्दों को क्रमबद्ध, लयबद्ध,वृताकार क्रम से उच्चारित करने से एक विशेष प्रकार का गति - चक्र बन जाता है जो सीधा चलने की अपेक्षा स्प्रिंग की भांति वृत्ताकार गति के अनुसार चलता है और अपने गंतव्य देव तक पहुंच जाता हैं।पुनः उन ध्वनियों की प्रतिध्वनियां उस देव की अलौकिकता, दिव्यता, तेज और प्रकाश - अणु लेकर साधक के पास लौट जाती हैं। अतः हम कह सकते हैं की मन्त्रों की गति स्पारल सेरुलेटरी पाथ का अनुगमन करती हैं।इसका उदहारण हम प्रत्यावर्ती बाण के पथ से कर सकते हैं, जिसकी वृत्तात्मक यात्रा पुनः अपने स्त्रोत पर आ कर ही ख़तम होती है। अतः मन्त्रों के रूप में जो भी तरंगें अपने मस्तिष्क से हम ब्रह्माण्ड में प्रक्षेपित करते हैं वे लौट कर हमारे पास ही आती हैं। अतः मंत्रो का चयन अत्यंत सावधानी से करना चाहिए।
गायत्री मंत्र महामंत्र है
इस मंत्र के अधिष्ठाता - देव सूर्य हैं। जब हम गायत्री -मंत्र का जाप करतें हैं तो ब्रह्माण्ड के मानस -माध्यम में एक विशिष्ट प्रकार की असाधारण तरंगें उठती हैं जो स्प्रिंगनुमा- पथ का अनुगमन करती हुई सूर्य तक पहुंचती हैं।उसकी प्रतिध्वनी लौटते समय सूर्य की दिव्यता, प्रकाश, तेज, ताप और अन्य आलौकिक गुणों से युक्त होती है। साधक को इन दिव्य - अणुओं से भर देतीं हैं। साधक शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से लाभान्वित होता है
मंत्र- सिद्धि
- जब मंत्र, साधक के भ्रूमध्य या आज्ञा -चक्र में अग्नि - अक्षरों में लिखा दिखाई दे, तो मंत्र-सिद्ध हुआ समझाना चाहिए।
- जब बिना जाप किये साधक को लगे की मंत्र -जाप अनवरत उसके अन्दर स्वतः चल रहा है तो मंत्र की सिद्धि होनी अभिष्ट है।
- साधक सदैव अपने इष्ट -देव की उपस्थिति अनुभव करे और उनके दिव्य - गुणों से अपने को भरा समझे तो मंत्र- सिद्ध हुआ जानें।
- शुद्धता, पवित्रता और चेतना का उर्ध्गमन का अनुभव करे तो मंत्र- सिद्ध हुआ जानें।
- मंत्र सिद्धि के पश्च्यात साधक की शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति होने लग जाती है।
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