विवाह के गठबंधन में आखिर क्यों डालते हैं पांच चीजें, जानिये इस परंपरा का रहस्य
सनातन परंपरा में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता दी गई है। इस संस्कार में निर्वाहन होने वाली प्रत्येक परंपरा का विशेष महत्व होता है।
आगरा, जेएनएन: अग्नि के सात फेरे लेकर सात वचनों से सात जन्मों के लिए जुडऩे वाला गठबंधन वैवाहिक परंपरा में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। गठबंधन के समय वधू के पल्लू और वर के दुपट्टे या धोती में सिक्का (पैसा), पुष्प, हल्दी, दूर्वा और अक्षत, पांच चीजें बांधी जाती हैं। ये सभी चीजें अपने आप में विशेष महत्व रखती हैं। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार इन सभी चीजों का वैवाहिक गठबंधन में विशेष महत्व होता है। हर वस्तु वैवाहिक जीवन के सुखमय आधार के प्रतीक के रूप में होती है।
सिक्का
यह इस बात का प्रतीक है कि धन पर किसी एक का पूर्ण अधिकार नहीं होगा, बल्कि समान अधिकार रहेगा।
पुष्प
यह प्रतीक है, प्रसन्नता और शुभकामनाओं का। दोनों सदैव हंसते- खिलखिलाते रहें। एक-दूसरे को देखकर प्रसन्न हों, एक- दूसरे की प्रशंसा करें।
हल्दी
आरोग्य और गुरु का प्रतीक है। एक- दूसरे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए प्रयत्नशील रहें। मन में कभी हीनता न आने दें। हल्दी की सुगंध जिन्हें जल्दी आती है उन्हें इसका रंग जल्दी चढ़ता है। अत: जरूरी निर्णय में आपसी परामर्श करें।
दूर्वा
प्रतीक है कि कभी प्रेम भावना न मुरझाने देना। दूर्वा का जीवन तत्व कभी नष्ट नहीं होता। सूखी दिखने पर भी यह पानी में डालने पर हरी हो जाती है। ठीक इसी तरह दोनों के मन में एक- दूसरे के लिए अटूट प्रेम और आत्मीयता बनी रहे।
अक्षत
अक्षत यानि चावल अन्नपूर्णा का प्रतीक है। जो अन्न कमाएं, उसे अकेले नहीं, बल्कि मिल-जुलकर खाएं। परिवार के प्रति सेवा और उत्तरदायित्व का लक्ष्य भी ध्यान में रखें।
विवाह है एक संस्कार
पंडित वैभव जोशी बताते हैं कि सनातन धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से से मिलकर बना शब्द है। वि + वाह जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को ही सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार मानव जीवन को ब्रम्हचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम नामक चार आश्रमों में विभक्त किया गया है और गृहस्थ आश्रम के लिये पाणिग्रहण संस्कार अर्थात् विवाह नितांत आवश्यक है क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएं और कुछ अपूणर्ताएं दे रखी हैं इसीलिए विवाह सम्मिलन से एक- दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं। इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है।
विवाह प्रधानत: दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निमार्ण करना है जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके ।
शास्त्रों में आठ तरह के विवाह का विवरण
ब्रह्म विवाह
जब दोनो पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना ब्रह्म विवाह कहलाता है। सामान्यत: इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है। आज का अरेंज मैरेज ब्रह्म विवाह का ही रूप है जिसे सभी विवाहों में श्रेष्ठ माना गया है।
दैव विवाह
जब किसी सेवा कार्य (विशेषत: धार्मिक अनुष्टान) के मूल्य के रूप में अपनी कन्या को दान में दे जाए तो यह दैव विवाह कहलाता है जैसे कि देवदासी।
आर्श विवाह
जब कन्या- पक्ष वालों को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्यत: गौदान करके)कन्या से विवाह कर लेना अर्श विवाह कहलाता है।
प्रजापत्य विवाह
जब कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के वर से कर देना प्रजापत्य विवाह कहलाता है।
गंधर्व विवाह
परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना गंधर्व विवाह कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से गंधर्व विवाह ही किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष बना।
असुर विवाह
कन्या को खरीद कर आर्थिक रूप से विवाह कर लेना असुर विवाह कहलाता है जो कि अक्सर मुस्लिमों में होता है क्योंकि मुस्लिमों में लड़की को उसकी मेहर की रकम तय करके खरीदी ही जाती है।
राक्षस विवाह
कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना राक्षस विवाह कहलाता है बलात्कार आदि इसी श्रेणी में आते हैं।
पैशाच विवाह
कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बना लेना और उससे विवाह करना पैशाच विवाह कहलाता है।