ब्रज की गलियों से गुम हुई कान्हा की बांसुरी
आगरा: पहले गली-गली में दिखाई देती थी बांसुरी
आगरा(ऋषि भारद्वाज) : कन्हैया की बांसुरी की धुन अब उनके ब्रज से ही लुप्त होती जा रही है। मथुरा-वृंदावन में इस कला के साधक अंगुली पर गिने जाने योग्य ही रह गए हैं। इनमें भी दो, चार का ही वादन पर अधिकार है। राजेंद्र कृष्ण संगीत महाविद्यालय ही आज ऐसा केंद्र है, जहां इस कला को सिखाने की व्यवस्था है।
कहा जाता है कि बिना कृष्ण के ब्रज संस्कृति की कल्पना असंभव है। कान्हा की कल्पना उनकी मुरली के बिना अधूरी है, लेकिन ब्रज में अब धीरे-धीरे विदेशी वाद्य यंत्रों ने बांसुरी का स्थान ले लिया है। पिछले 48 वर्षाें से कलाकारों को संगीत की शिक्षा दे रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम नेशनल अवार्ड से सम्मानित छत्ता बाजार निवासी संगीतज्ञ राजेंद्र कृष्ण अग्रवाल ने बताया कि पूर्व में रामकिशोर बानी, गंगाशरण बंशी वाला, प्रहलाद अग्रवाल (वृंदावन) आदि द्वारा बजाई जाने वाली धुन सुनने को लोग दौड़ पड़ते थे। आज चंद वादकों के सहारे यह कला जीवित है। इनमें भी दस साल में ऐसा कोई नया कलाकार सामने नहीं आया है, जिसने बांसुरी में नाम कमाया हो। वह बताते हैं कि बीते दस सालों में इस कला को सीखने वालों की संख्या में भी 90 फीसद की कमी आई है। पहले एक साल में करीब 35 से 40 बांसुरी वादन सीखने आते थे। आज यह संख्या सिर्फ चार-पांच तक ही सिमट कर रह गई है। पुराने कलाकारों में ब्रजभूषण वानी, शिवकुमार गहलौत, सीताराम लाड़के, रमेश गुप्ता शामिल हैं। आज भले ही कलाकार संगीत में रुचि नहीं ले रहे लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि रेलवे, थल सेना, जल सेना, वायु सेना आदि में इसके लिए अलग से कोटे निर्धारित किए जाते हैं। साथ ही मल्टी नेशनल कंपनियों में भी संगीतज्ञों को विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। फिलहाल वे धीरज शर्मा, मुकुंद खंडेलवाल आदि को इस कला में निपुण बनाने में जुटे हैं।
एक ही वस्तु से होता है निर्माण
बांसुरी पूर्वकालीन ज्ञात संगीत उपकरणों में से एक है। करीब 35-40 हजार वर्ष पहले की तिथि की कई बांसुरियां जर्मनी के स्वाबियन अल्ब क्षेत्र में पाई गई हैं। बांसुरी सुशिर वाद्य यंत्र माना जाता है। यह पूरी तरह बांस से बनी होती है, इसलिए इसे यह नाम दिया गया है। बांसुरी बनाने की प्रक्रिया में सर्वप्रथम गांठों को हटाया जाता है, इसके सिर पर बने पहले छिद्र को मुखरंध कहा जाता है, जिसका प्रयोग मुंह से हवा देने के लिए किया जाता है। बांसुरी में बने शेष छ: छिद्र का प्रयोग स्वर बनाने के लिए होता है। बांसुरी अंदर से खोखली होती है, इसका तात्पर्य है कि इसके अंदर कोई भेदभाव नहीं है। यही एक मात्र ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसे बनाने में सिर्फ एक ही वस्तु का इस्तेमाल होता है। आज की पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने में लगी है। बांसुरी ब्रज की कलाओं में से एक है, लेकिन अब कलाकार इन्हें सीखने के स्थान पर विदेशी वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण प्राप्त करने में लगे हैं। इस कारण यह कला विलुप्त होती जा रही है।
मोहन श्याम पचौरी, बांसुरी वादक