Vasant Celebration: साहित्य साधकों ने ब्रज के वसंत को दिया शाब्दिक रूप, हर शब्द है मधु से परिपूर्ण Agra News
विद्यापति से लेकर भारतेंदु ने लिखा है ब्रज के वसंत पर। मंदिरों में गाया जाता है साधकों का साहित्य।
आगरा, विपिन पाराशर। एहि विधि खेल होत नित ही नित, वृंदावन छवि छायो। सदा वसंत रहत जहं हाजिर, कुसुमित फलित सोहायो।।
आधुनिक काल के महाकवि भारतेंदु हरिश्चंद्र की ब्रज के वसंत पर ये पंक्तियां उनकी रचना मधु-मुकुल में ब्रज के वसंत साहित्य की समृद्ध श्रृंखला का प्रमाण दे रही हैं। ब्रज में वसंत न केवल खेलने और महसूस करने में परिलक्षित होता है, बल्कि ये लिखा और आज गाया भी जा रहा है। कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रजभाषा में वसंत को विस्तार से गाया है। भारतेंदु ही नहीं 14 वीं सदी में विद्यापति ने -
आएल रितुपति- राज वसंत।
धाओल अलिकुल माधव-पंथ।।
नव वृंदावन राज विहार।
विद्यापति कह समयक सार।।
... जैसे रूपों में अभिव्यक्त किया।
वृंदावन और वसंत के युग-युगीन समन्वय ने अलग-अलग दौर में संस्कृति की जो नई परिभाषाएं गढ़ीं उसने भारत के अंचलों को शुरू से ही आकर्षित किया है। ब्रज के मंदिरों में गाई जाने वाली 'वसंत की धमार वसंत का मनभावन दृश्य उकेरती हैं, तो इससे जुड़ी कई परंपराएं इस मनोरथ को और खास बनाती हैं। यह ब्रज की अपनी विशेषता है कि यहां मंदिरों में समाज गायन और कीर्तन परंपरा से जहां वसंत का पारंपरिक भाव बना रहा, तो लिखित परंपरा के रूप में साधकों द्वारा रचा वसंतोत्सव विषयक पोथियां इस उत्सव का गायन अपनी ही तरह करती हैं।
हर अंचल ने गाया वृंदावन का वसंत
वृंदावन शोध संस्थान के डॉ.राजेश शर्मा बताते है कि विद्यापति से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके बाद तक वसंत के लेखन और गायन के दीर्घ अंतराल में वसंत की सांस्कृतिक यात्रा वृंदावनी वसंत की उस श्रृंखलाबद्ध गौरव गाथा को बताती है जिसमें राधा-कृष्ण की रासस्थली वृंदावन का महत्व लगभग 600 वर्षों के आंचलिक विस्तार के रूप में ज्ञात हुआ है।
वसंत के साहित्य की समृद्ध श्रृंखला
वसंत से जुड़े साहित्य की विस्तार यात्रा भी कम गौरवशाली नहीं। विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी, अष्टछाप के कवि, मीरा, बिहारी, टैगोर व सुभद्रा कुमारी चौहान तक वसंत की समृद्ध परंपरा दिखती हैं। वृंदावन में बारह महीने वसंत का भाव यहां साधुओं व साधकों द्वारा रचित साहित्य का केंद्र रहा। भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक जहां श्रद्धा के धरातल पर निम्बार्क, वल्लभ, राधाबल्लभ, गौड़ीय, ललित व चरणदासी साधक-आचार्यों ने वसंत पर आधारित साहित्य का लेखन किया। राज परिवारों व स्वतंत्र रूप से भी यह विषय अलग-अलग कालक्रमों में इतना समृद्ध हुआ कि इसका बहुलांश आज भी पांडुलिपियों के रूप में अप्रसारित बना हुआ है।
साधकों का लिखित ग्रंथ गाया जाता है मंदिरों में
ठा. बांकेबिहारी मंदिर हो या फिर दूसरा कोई मंदिर। पदों का गायन उसी परंपरा के साधकों द्वारा लिखे गए वसंत को समाज गायन अथवा पद गायन के दौरान साधकों द्वारा गाया जाता है। ठा. बांकेबिहारी मंदिर में हरिदासीय संप्रदाय और राधाबल्लभ मंदिर में राधाबल्लभीय संप्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखे वसंत को गाया जाता है। आधुनिक काल के कवियों जिनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र अथवा विद्यापति के लिखे वसंत को मंदिरों में जगह कम ही मिली है। मंचों से इस वसंत को अब भी गाया जाता है।