फाउंडेशन एक्सपर्ट की राय, रोबोट से कराएं ताज की गुंबद का मडपैक Agra News
फाउंडेशन एक्सपर्ट प्रो. एससी हांडा बोले नींव की सलामती को चाहिए साफ पानी। ताजमहल को वायु प्रदूषण से बचाने को सरकार उठाए सख्त कदम।
आगरा, निर्लोष कुमार। मडपैक कर ताज के सौंदर्य को बरकरार रखने के साथ उसकी नींव को सलामत रखना भी अत्यंत आवश्यक है। वो तो अच्छा हुआ कि यमुना ताजमहल से दूर हो गई। वरना, यमुना में बह रहा सीवरेज ताज को नुकसान पहुंचाता। बेहतर हो कि ताज के पीछे कंक्रीट का विशाल टैंक बनाकर उसमें साफ पानी भरा जाए। और नियमित अंतराल में ये पानी भी बदला भी जाए। इससे ताज की नींव में लगी साल की लकड़ी को उचित नमी मिलती रहेगी और वो लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी।
आइआइटी, रुड़की से रिटायर्ड प्रो. एससी हांडा ने शनिवार को होटल हॉलिडे-इन में ‘दैनिक जागरण’ से वार्ता में यह बात कही। वो आगरा में शनिवार से शुरु हुई आर्किटेक्ट एसोसिएशन की राष्ट्रीय कांफ्रेंस में भाग लेने आए हैं। वर्ष 2001 में ताजमहल की सॉइल टेस्टिंग करने वाले प्रो. हांडा ने बताया कि ताज के पार्श्व में पहले तो कूड़ा फेंका जाता रहा, उसे छिपाने को बाद में घास लगा दी गई। इससे यमुना ताज से दूर हो गई। एक तरह से यह सही भी रहा, क्योंकि यमुना में बह रहे सीवरेज से स्मारक को अधिक नुकसान पहुंचता।
प्रो. हांडा ने बताया कि ताजमहल को धूल कणों से बचाने को ऐसी निर्माण विधि का उपयोग करना होगा, जिससे कि कम से कम धूल कण उड़ें। कूड़ा जलना रोका जाए, जिससे कि कार्बन कण ताज को नळ्कसान नहीं पहुंचाएं। श्मशान घाट पर विद्युत शवदाह गृह के प्रयोग को बढ़ावा दें या फिर उसे शिफ्ट करें।
मडपैक को रोबोट का करें इस्तेमाल
मडपैक ट्रीटमेंट (मुल्तानी मिट्टी का लेप) को प्रो. एससी हांडा ने सुरक्षित व प्राचीन विधि बताया। कहा कि मडपैक सबसे बढिय़ा है। हमें यह देखना होगा कि इससे संगमरमर की चमक कम नहीं हो। बताया कि ताज के गुंबद पर अधिक ऊंचाई के चलते मडपैक ट्रीटमेंट नहीं हो पा रहा है। इसकी सफाई को रोबोट का प्रयोग कर सकते हैं। अभी भारत में यह तकनीक अभी प्रचलन में नहीं है, लेकिन विदेशों में प्रचलन में है। इससे पूरे गुंबद पर पाड़ बांधने की आवश्यकता भी नहीं होगी।
इसीलिए टिके हैं पुराने भवन
प्रो. हांडा ने बताया कि सीमेंट सस्ता होने से आज उसका अधिकाधिक प्रयोग हो रहा है। उससे बने भवनों की अधिकतम लाइफ 100 वर्ष है। पत्थर हजारों वर्षों तक सुरक्षित रहता है। इसीलिए पुराने किलों व मंदिरों में उसका उपयोग किया गया था। यह इसीलिए आज तक सुरक्षित हैं।