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मुगल दरबारों में भी खूब बरसता था होली का रंग, ये हैै ही ऐसा उल्‍लास का पर्व Agra News

अकबर जहांगीर के अलावा बादशाह जफर ने भी खेली होली। ब्रज संस्कृति शोध संस्थान की पांडुलिपियों में है इसका उल्लेख।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Tue, 25 Feb 2020 09:29 AM (IST)Updated: Tue, 25 Feb 2020 09:29 AM (IST)
मुगल दरबारों में भी खूब बरसता था होली का रंग, ये हैै ही ऐसा उल्‍लास का पर्व Agra News
मुगल दरबारों में भी खूब बरसता था होली का रंग, ये हैै ही ऐसा उल्‍लास का पर्व Agra News

आगरा, जेएनएन। रंग के छीटों से जिनका मजहब खतरे में पड़ जाता, उन्हें सद्भाव की महक क्यों नहीं दिखती। इस महक को कई मुगलिया बादशाहों ने समझा। अकबर के दरबार में तो इसे धूमधाम से मनाया जाता था। जहांगीर अपने रनिवास में जमकर होली खेलता था। इसका उल्लेख ब्रज संस्कृति शोध संस्थान में संरक्षित पांडुलिपियों में दर्ज है।

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ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के सचिव लक्ष्मीनारायण तिवारी बताते हैं कि मुगलकाल के चित्रकार अबुल हसन द्वारा बनाई गई जहांगीर के हरम में मनाए जाने वाली होली का एक चित्र 'जहांगीर एलबम' में लंदन के संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें दो घड़ों में रंग भरा है। एक सुंदर नारी पिचकारी मार रही है, दूसरी सुंदरी निशाना लगाने की कोशिश कर रही है। बादशाह जहांगीर ताज पहने हैं और उनकी बेगम बगल में खड़ी हैं।

सचिव ने बताया कि इस तरह के प्रमाण कई पांडुलिपियों में मिलते हैं कि जहांगीर और बादशाह अकबर के दरबार में होली उल्लासपूर्वक मनाई जाती थी। अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन इतिहास में है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल गया था।

शहंशाह शाहजहां के जमाने में होली को 'ईद-ए-गुलाबी' या आब-ए-पाशी' (रंगों की बौछार) कहा जाता था। मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। ङ्क्षहदी साहित्य में कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तार से वर्णन किया गया है।

प्राचीन ग्र्रंथों में होली का वर्णन

कामदेव की पूजा: शैवागम की विचारधारा से संबंधित ग्रंथ वर्ष क्रिया कौमुदी में मदन महोत्सव (होली उत्सव) में सुबह के पहले पहर तक संगीत और वाद्य के साथ श्रृंगारिक अपशब्दों का उपयोग करते हुए कीचड़ उछालने का उल्लेख है। तिवारी ने बताया कि हर्ष देव की रत्नावली में उल्लेख है कि दक्षिण भारत में इस उत्सव में चित्र बनाकर कामदेव की पूजा होती थी। भविष्यपुराण में कामदेव और रति की मूर्तियां बनवाकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है। कामसूत्र में इसे सुवसंतक उत्सव बताया है। हर्षदेव के समय की दरबारी परंपरा मुगल दरबार में भी पहुंची।  


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