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हुनर को न खुला विकास का ‘बुलंद दरवाजा’, जानें क्‍यों होती हैं यहां हाल और हालात की जंग

करीब बीस मजरों में घर-घर लगे हैं हथकरघा। जर्मनी और फ्रांस तक निर्यात होती हैं यहां बुनी गईं दरियां।बुनकरों को न मिला कल्याणकारी योजनाओं का लाभ।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Mon, 08 Apr 2019 02:33 PM (IST)Updated: Mon, 08 Apr 2019 02:33 PM (IST)
हुनर को न खुला विकास का ‘बुलंद दरवाजा’, जानें क्‍यों होती हैं यहां हाल और हालात की जंग
हुनर को न खुला विकास का ‘बुलंद दरवाजा’, जानें क्‍यों होती हैं यहां हाल और हालात की जंग

आगरा, यशपाल चौहान। वोट के लिए चुनावी अखाड़ा तो पांच साल बाद सजा है, मगर फतेहपुर सीकरी के नगला जन्नू तो सामने बने ‘बुलंद दरवाजा’ से हर रोज ही ‘जंग’ करता है। ये जंग होती है हाल और हालात की। बुलंद दरवाजा जहां अपनी विशालता और भव्यता के लिए देश-दुनिया में निरंतर विख्यात होता गया, वहीं नगला जन्नू में कच्ची-खंडहर कोठरियों में कभी रंग-रोगन तक नहीं हो पाया। स्मारक को निहारने दुनिया भर से लोग आते हैं, मगर गांव में बुनकरों के हुनर को तलाशते हुए कोई नहीं आया। मुगलिया सल्तनत के इस ‘इतिहास’ को सजाने-संवारने पर खजाने खुलते रहे, मगर यहां के बुनकरों के विकास के लिए एक रुपया भी नहीं मिल पाया।

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गांव के सबसे बुजुर्ग 90 वर्षीय इमामुद्दीन के घर का दरवाजा ‘बुलंद दरवाजा’ की ओर ही है। जब भी दरवाजा खोलते हैं तो सामने यही स्मारक नजर आता है। इमामुद्दीन कहते हैं कि मैं तो हर पल इस स्मारक को देखता हूं। स्मारक की ‘खूबसूरती’ निरंतर निखरती देखी है और एक हम हैं कि तमाम उम्मीदों में ही इतनी उमर गुजार दी। विकास के लिए वोट भी जरूरी है। और इमामुददीन ने तो ये फर्ज भी पूरी शिददत से निभाया है। बताते हैं कि आजादी के समय वे 12 वर्ष के थे। पहले चुनाव में तो उन्होंने वोट नहीं दिया, लेकिन उसके बाद हर चुनाव में वोट देते आ रहे हैं। इस बार भी देंगे। मगर, किसी सरकार ने उनके गांव के लिए नहीं सोचा।

पुश्तैनी है दरी की बुनाई

गांव-गांव में घर-घर में दरी बुनने के हथकरघा लगे हैं। इस गांव के लिए यही एकमात्र रोजगार का जरिया है। यहां के 75 वर्षीय भद्दा बताते हैं कि गांव में बेरोजगारी बहुत है। दरी बुनकर सभी के घर का खर्च चलता है। 45 वर्षीय कल्लू बीस वर्ष से हथकरघा चला रहे हैं। घर में पति और दो बच्चे हैं। बड़ा बेटा भी मजदूरी करता है। कमाई पूछने पर लंबी सांस लेकर बोलते हैं 100 से 150 रुपये कमा लेते हैं। किसी तरह घर का खर्च चलता है। अगर कोई बीमार हो गया तो फिर कर्ज लेना पड़ता है। उन्हीं के पास हथकरघे पर काम कर रहे 25 वर्षीय सद्दाम 10 वर्ष से काम कर रहे हैं। उन्हें भी सौ रुपये रोज मजदूरी मिलती है।

तमाम प्रयास किए, नहीं मिलती सरकारी मदद

बुनकरों के उत्थान के लिए काम कर रहे फतेहपुर सीकरी के पूर्व चेयरमैन हाजी बदरुद्दीन ने बताया कि बुनकरों को सरकार से भी कोई मदद नहीं मिल पा रही है। तमाम प्रस्ताव भेजे गए, लेकिन इन पर अमल नहीं हुआ।

दो किमी दूर से लाते हैं पानी

नगला जन्नू की भूरी और भुटटो सिर पर दो मटके रखकर ला रही थीं। उन्होंने बताया कि दिन में कई बार उन्हें पानी लेने के लिए दो किमी दूर स्थित गांव नगला बीच जाना पड़ता है।

कार्ड बने, लेकिन कुछ न हुआ

गांव के इकबाल ने बताया कि कुछ माह पहले गांव में हथकरघा एवं वस्त्रोद्योग उप्र कानपुर से अधिकारी आए थे। उन्होंने परिचय पत्र बनाए और बैंकों में खाते खुलवाए। इसमें 500-500 रुपये खर्च हो गए। मगर, हुआ कुछ नहीं। उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ।

बुनकरों को नाममात्र की मजदूरी

बुनकरों ने बताया कि उनको 30 रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से मजदूरी मिलती है। जबकि इसे बनवाने वाले दो सौ रुपये तक कमाते हैं। कुछ तो एक्सपोर्ट कर मोटी कमाई करते हैं। मगर, इन्हें बनाने वाले बुनकरों के वही हालात हैं।

कंगाली और भुखमरी से तंग आकर मां-बेटे ने कर ली थी खुदकशी

इस क्षेत्र में बेरोजगारी के कारण गरीबी भी है। नगला जन्नू में अगस्त 2017 में मुबारक और उसकी अम्मी ने तंग आकर जहर खाकर खुदकशी कर ली थी। मुबारक बीमार मां का इलाज नहीं करा पाया था। घर के बर्तन बेचकर जहर खरीद कर लाया था। हालांकि, हादसे के बाद सरकारी मदद से बने कमरे की छत अभी कच्ची हैं। अब घर में उसकी 35 वर्षीय प}ी हलीमा, 17 वर्षीय बेटा जावेद, 15 वर्षीय बेटा आबिद, 13 वर्षीय बेटी शकीना और आठ वर्षीय बेटी शमा हैं। बच्चों की पढ़ाई छूट गई। जावेद और आबिद दरी बुनते हैं। पूरे दिन पसीना बहाने पर वे 50 रुपये कमा पाते हैं। हलीमा खेतों में मजदूरी करती है। हलीमा कहती है कि जब होता है तो खा लेते हैं। नहीं होता है तो भूखे सो जाते हैं। अब तो बच्चों को भी आदत पड़ गई है। कुछ नहीं बोलते। वोट की पूछने पर कहने लगती है कि यह तो हमारा अधिकार है। जरूर वोट देंगे। वो हमारे लिए सोचें या न सोचें, हम तो सोचेंगे।

नगला जन्नू ही नहीं, बीस मजरे भी लड़ रहे ऐसी ‘जंग’

- फतेहपुर सीकरी के पांच किमी की परिधि में करीब स्थित छह ग्राम पंचायतों और बीस मजरों में दरी बुनाई की जाती है। इनमें जहानपुर, गई बुजुर्ग, नगला जन्नू, जौताना, सीकरी दो हिस्सा, सोनौटी ग्राम पंचायतें शामिल हैं।

- 4000 करीब बुनकर हैं पूरे क्षेत्र में

- 90 फीसद बुनकर मजदूरी पर करते हैं काम

- 90 फीसद उत्पादन का होता है निर्यात। जर्मनी और फ्रांस में सबसे अधिक मांग।

ये सुविधाएं मिलें तो सुधरें हालात

- हर बुनकर का पंजीकरण हो। बुनकर कार्ड बनाए जाएं।

- कार्डधारकाें को बैंकों से लोन की सुविधा मिले। जिससे वे रॉ मैटेरियल खरीद कर लाएं और अपना माल बाजार में बेच सकें।

- दरी बुनाई को कुटीर उद्योग के रूप में विकसित किया जाए।

- फतेहपुर सीकरी में तमाम पर्यटक आते हैं। बुनकरों के लिए ऐसा कोई स्थान मिले, जहां वे अपने प्रोडक्ट्स को प्रदर्शित कर सकें। उन्हें खुला बाजार मिल जाएगा।

- ताज महोत्सव जैसे अन्य मेलों में बुनकरों को स्टॉल उपलब्ध हों।


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