धूल के कणों से बचाएं आंखें वरना सूख जाएगा आंसुओं का दरिया Agra News
बेकाबू पर्यावरणीय प्रदूषण से आंखें हो रहीं ड्राइ।
आगरा, राजेश मिश्रा। हर आंसू महज आंखों का पानी नहीं होता। हर आंसू में एक हसरत होती है। कभी ख्वाब आंसू बनकर आ जाते हैं तो कभी ख्याल बनकर। दिल के अरमां कभी आंसुओं में बह जाते हैं तो कोई उनकी याद में चुपके-चुपके दिन रात आंसू बहाता है। जुदा हालात में भी कोई आंसुओं को मुस्कराने की सीख देता है। तो वतन पर मर मिटने वालों की याद में अश्रुधार बहती है। आंसू न केवल आंखों की भाषा है बल्कि दिल की जुबां भी। हम लाख छिपाएं मगर बेवफा आंसू आंखों से बगावत कर ही देते हैं। लेकिन, बढते पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण आंसुआें का दरिया सूखने लगा है। आंखों का पानी मरने लगा है।
आंख और आंसुओं की प्रगाढता में आ रही ये कमी आगरा में नेत्र रोग के उपचार केंद्रों और नेत्र रोग विशेषज्ञों के क्लीनिकों पर देखी जा सकती है। ढलती उम्र के लोग ही नहीं, युवा और बचपन भी यहां पर अपनी आंखों की नमी के कारण परेशान होते देखे जा सकते हैं। एसएन मेडिकल कॉलेज आगरा के वरिष्ठ नेत्र रोग विशेषज्ञ डा एस के सत्संगी बताते हैं कि पहले मोतिया बिंद ही आंखाें की आम और मुख्य बीमारी हुआ करती थी। मगर अब तो आंखों को मानो नजर लग गई हो। इतनी बीमारियां कि अक्सर ही हर मरीज में नया रोग देखने केा मिल रहा है। एक अनुमान के तौर पर देखा जाए तो दस में से पांच-छह मरीजों की आंखें ड्राइ पाई जा रही हैं।अगर मरीज को डायबिटीज जैसी कोई बीमारी है तो ये तकलीफ और बढ जाती है। ज्यादातर का मुख्य कारण पर्यावरणीय प्रदूषण है। डा सत्संगी बताते हैं कि वातावरण में व्याप्त धूल के कण हमारी आंखों को भी प्रभावित कर रहे हैं। ये कण अश्रु ग्रंथियों के सूक्ष्मतम छिद्रों को बंद कर रहे हैं। जिससे आंसू बाहर नहीं आ पाते और इससे आंख की नमी भी कम होती जाती है। या यूं कहिए कि आंखों का पानी मरने लगा है। जाहिर है कि इससे आंखों की रोशनी पर भी असर पडता है। डा सत्संगी बताते हैं कि आगरा ही नहीं, आसपास के शहरों के मरीजों की आंखों में भी यही समस्या बहुुत तेजी से बढती जा रही है। ये सब बढते प्रदूषण का दुष्प्रभाव है। समय रहते इसका इलाज संभव है मगर देरी करने पर आंखों की रोशनी वापस ला पाना काफी हद तक संभव नहीं हो पाता।
धूप का हर चश्मा मुफीद नहीं होता
डा सत्संगी कहते हैं कि धूल-धूप से बचने केा लोग सामान्य चश्मा लगाते हैं। मगर ये सही नहीं है। तमाम चश्मों के लैंस प्लास्टिक या अन्य धातु के होते हैं जो आंखों पर ज्यादा जोर डालते हैं। आमतौर पर लोग अपनी आंखों की जांच तभी कराते हैं जब उन्हें कोई विशेष तकलीफ होने लगती है जबकि पर्यावरणीय प्रदूषण के बढते प्रकोप से आंखों की जांच नियमित रूप से करानी चाहिए। धूल और धूप से बचने के लिए चिकित्सक की परामर्श से ही चश्मा प्रयोग करना चाहिए। सडक पर सजे फड से चश्मा लेना आंखों के लिए नुकसानदायक हो सकता है।
बचपन में नेत्ररोगी बना रहा मोबाइल
आजकल देखने में आ रहा है कि बच्चे भी मोबाइल फोन के आदी हो गए हैं। अबोध बच्चे मोबाइल फोन में कार्टून देखते हैं, गीत सुनते हैं। ऐसे में मोबाइल फोन आंखों से काफी नजदीक रहता है। डा सत्संगी बताते हैं कि मोबाइल फोन का रेडियेशन तो बच्चे को प्रभावित करता ही है, उनकी आंखों पर भी असर पडता है। वे कहते हैं कि कम से कम 12 साल तक के बच्चे को तो मोबाइल फोन से दूर ही रखा जाना चाहिए।