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कांग्रेस कैसे भेदेगी सपा का गढ़, यहां तो खुलता भी नहीं खाता

वर्ष 1985 के विस चुनाव के बाद से मैनपुरी में हाशिये पर है पार्टी। संगठन भी नहीं रहा व्यापक, अब फिर होगी मजबूती की कोशिश।

By Prateek GuptaEdited By: Published: Wed, 12 Dec 2018 04:32 PM (IST)Updated: Wed, 12 Dec 2018 04:32 PM (IST)
कांग्रेस कैसे भेदेगी सपा का गढ़, यहां तो खुलता भी नहीं खाता
कांग्रेस कैसे भेदेगी सपा का गढ़, यहां तो खुलता भी नहीं खाता

आगरा, दिलीप शर्मा। राहुल गांधी के नेतृत्व में तीन राज्यों में कांग्रेस के अच्छे दिन आ गए, परंतु उप्र, विशेषकर मैनपुरी में यह अब तक ख्वाब ही लगता है। हाथ के लिए यहां की सियासी जमीन 33 साल पहले ही बंजर हो चुकी है। अब इस बंजर बिसात पर वोटों की फसल उगाना आसान नहीं। हालांकि तीन राज्यों के नतीजों से संगठन में उत्साह जरूर आ गया है और नये सिरे से मजबूती की कसरत होने जा रही है।

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आजादी के बाद लोकशाही के शुरूआती दौर में जब- जब जनता चुनाव की दहलीज पर पहुंची, उसने हाथ का भरपूर साथ दिया। पूरे देश की तरह मैनपुरी में भी विधानसभा से लेकर लोकसभा तक कांग्रेस का ही बोलबाला था। लोकसभा में यह सिलसिला वर्ष 1984 के चुनाव तक चला। 84 में हुए चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर बलराम ङ्क्षसह यादव सांसद बने थे। विधानसभा की बात करें तो कांग्रेस के अच्छे दिन वर्ष 1985 के चुनाव तक ही रहे। तब हुए चुनाव में कांग्रेस ने यहां मैनपुरी शहर, किशनी और भोगांव की विस सीटों पर जीत हासिल की थी। परंतु इसके बाद मतदाता छिटकता चला गया। बाद में जिला सपा के गढ़ के रूप में स्थापित हो गया। ऐसे में किसी भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का कोई प्रत्याशी जीत हासिल नहीं कर सका। पार्टी चार नंबर से आगे ही नहीं बढ़ सकी। बीते विधानसभा चुनाव में जिले की चार सीटों में से तीन गठबंधन के तहत सपा के प्रत्याशियों ने जरूर जीतीं, परंतु इस जीत में भी कांग्रेस की भूमिका को अहम नहीं माना गया।

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक पूर्व में मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्ग का वोट बैंक कांग्रेस के ही खाते में रहता था। परंतु बसपा और सपा का प्रभाव बढऩे के बाद यह वोट बैंक पूरी तरह कट गया। वहीं हाईकमान ने पार्टी संगठन को लेकर भी गंभीरता नहीं दिखाई, ऐसे में संगठन कमजोर होता चला गया। इसका अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि वर्ष 1989 तक कांग्रेस की सदस्यता दो लाख के आसपास हुआ करती थी, जो वर्तमान में 1.47 लाख ही रह गई है। यह आंकड़ा भी वर्ष 2012 के बाद की गई करीब 25 हजार सदस्यता के बाद इतने तक पहुंचा है।

तीन बार तो प्रत्याशी ही नहीं उतारा

लोकसभा चुनावों की बात करें तो तीन चुनावों में कांग्रेस मैदान में ही नहीं उतरी। 2009, 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया। इसके बाद वर्ष 2014 के लोकसभा उपचुनाव में भी किसी को टिकट नहीं दी गई। इसके पीछे संगठन सपा से अघोषित गठबंधन होने की बात कहता रहा।

गांव- गांव बनाए जाएंगे सदस्य

पार्टी जिलाध्यक्ष संकोच गौड़ ने बताया कि देश की जनता को अब कांग्रेस से ही उम्मीद है। ऐसे में संगठन को मजबूत करने कोशिश की जा रही है। गांव-गांव संपर्क कर सबसे पहले सदस्यता को बढ़ाया जाएगा। हर बूथ पर 10 सदस्यीय समिति बन रही है। यह काम 80 फीसद पूरा हो चुका है। साथ ही पार्टी के निष्क्रिय पड़े वरिष्ठ और पुराने नेताओं को भी सक्रिय किया जा रहा है। कांग्रेस का वर्चस्व फिर से कायम होने की पूरी उम्मीद है।


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