गुरु का प्रकाश: एक ओंकार की ध्वनि से गूंज रही ताजनगरी, जानिए क्या है जुड़ाव गुरु नानक देव से Agra News
गुरु नानक देव साहब का 550 साला प्रकाश पर्व आज। शहर की धरा पर पड़े थे गुरु साहब के पावन चरण।
आगरा, जागरण संवाददाता। एक ओंकार का संदेश देने वाले सिख धर्म के पहले गुरु नानक देव साहब का 550 साला प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। अपनी शिक्षाओं से मानव सेवा का संदेश देने वाले गुरु के चरणों से ताजनगरी की धरती भी पावन हुई थी। यहां उन्होंने गुरुद्वारा गुरु का ताल, गुरुद्वारा लोहामंडी, गुरुद्वारा माईथान पर अल्प प्रवास कर अनुयायिओं को आशीष वचन दिए थे, जिन्हें आज भी यहां की धरती याद कर खुद को धन्य मानती है।
साहिब मेरा एको है, एको है भाई एको है।
आपे रूप करे बहु भांती नानक बपुडा एव कह।।
गुरु पुरे ते गति मति पाई।
बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे।
सतिगुरु राखे से बड़ भागे, नानक गुरु की चरणों लागे।।
यहां पड़े थे गुरुनानक देव के पावन चरण
गुरुद्वारा गुरु का ताल (दुख निवारण साहिब)
सिकंदरा स्थित गुरुद्वारा गुरु का ताल को गुरुद्वारा दुख निवारण साहब के नाम से जाना जाता है। यह सिख समुदाय के साथ सभी धर्मों के लोगों के बीच पवित्र स्थान माना जाता है। गुरुद्वारा प्रमुख संत बाबा प्रीतम सिंह संत सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानकदेव साहब ने अपनी दक्षिण की उदासी (यात्रा) के दौरान तीन दिन तक यहां अल्प प्रवास किया। इस दौरान यहां स्थित पीलू के पेड़ के नीचे बैठकर उन्होंने ध्यान किया था, उस स्थान पर मौजूद गुरु निशान साहब आज भी आस्था का केंद्र है। गुरु ने यहां एक महिला के बच्चों का आध्यात्मिक ज्ञान से उपचार किया, जिसके चलते यहां का नाम गुरुद्वारा दुख निवारण साहब पड़ा। हर साल यहां होली के अवसर पर पीलू वाले बाबा के नाम पर प्राचीन मेले का आयोजन होता है। यह स्थान कभी अंता का बाग नाम के विशाल बाग का अभिन्न हिस्सा था, जो अब विलुप्त हो चुका है। रोजाना देश-विदेश से संगतें आकर गुरु के चरण साहब के दर्शन कर खुद को धन्य महसूस करती हैं।
गुरुद्वारा ऐतिहासिक स्थान गुरुनानक देव, नया बांस, लोहामंडी
शहर के मध्य स्थित इस गुरुद्वारे की भी अपनी ही विशेषता है। दक्षिण की उदासी (यात्रा) के दौरान गुरु नानकदेव जब अंता का बाग में तीन दिन रुके, तो यह गुरुद्वारा भी उसी बाग का हिस्सा था। यहां भी गुरु नानकदेव ने संगतों को दर्शन दिए। उस स्थान पर पवित्र निशान साहिब आज भी मौजूद हैं, जो अनुयायियों के बीच आस्था रखते हैं। गुरु गुरुद्वारा नया बांस के सचिव बंटी बताते हैं, यह स्थान प्राचीन हैं। दैनिक जागरण की पहल के बाद ही इस स्थान समेत क्षेत्र के कई धार्मिक स्थलों को उत्तर प्रदेश सरकार ने पर्यटन स्थल की मान्यता दी।
गुरुद्वारा माईथान
यह शहर के बीच स्थित प्रमुख गुरुद्वारा है। इसका संचालन श्री गुरु सिंह सभा करती है। गुरुद्वारा संचालन समिति प्रधान कंवल जीत सिंह ने बताया कि दक्षिण की उदासी (यात्रा) में ग्वालियर से वापसी के दौरान गुरुनानक देव साहब ने ताजनगरी की धरती को धन्य किया। तब शहर का स्वरूप एक कस्बे जैसा था। तब गुरुद्वारे के स्थान पर जस्सी नाम की महिला रहती थीं, जो भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर उनकी मूर्ति की आराधना करती थीं। गुरुनानक देव के दर्शन कर उस महिला ने परमार्थ का रास्ता पूछा, तो गुरुनानक जी ने उनके प्रति उपदेश दिया।
तिलक मोहल्ला ईक ईया, नडीये मानडा काए करेहि।
गुरु उपदेश प्राप्त कर उन्होंने उसे प्रचारित करना शुरू किया। तभी से उन्हें लोग माता जस्सी कहकर पुकारने लगे और उनका घर सिख धर्म का केंद्र बना। उन्होंने पंथ के छठे गुरु हरगोबिंद साहब के भी दर्शन किए, तब उनकी उम्र 174 वर्ष थी। गुरु तेगबहादुर साहब को लेकर अनुयायियों की धारणा थी कि उनका सिमरन करने से वह स्वयं प्रकट होकर संगतों का दर्शन करते हैं। इसी से प्रेरणा लेकर माता जस्सी ने गुरु को भेंट करने के लिए अपने हाथों से कपड़े का थान बनाया, गुरु तेगबहादुर जी सिख धर्म के प्रचार को जब 1664-65 में रोहतक, दिल्ली, मथुरा होते हुए यहां आए तो उन्होंने गुरु को वह कपड़े का थान भेंट किया, तभी से इस जगह का नाम माईथान पड़ा। वह करीब एक माह यहां रुके। यहां पानी की समस्या बताने पर उन्होंने अपने प्रभाव से कुएं के खारे पानी को मीठे पानी में बदल दिया, जो यहां आज भी मौजूद है। उनके ही आशीर्वाद से जस्सी को माता जस्सी के नाम से जाना गया और गुरु सेवा के फल स्वरूप वह भी गुरु संगतों के बीच हमेशा के लिए अनंत काल तक याद रखी जाएंगी।
गुरुद्वारा हाथी घाट
हाथीघाट स्थित इस गुरुद्वारा की भी सिख संगतों के बीच खासी महत्ता है। गुरुद्वारा के मुख्य ग्र्रंथी बचन सिंह ने बताया कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके बड़े पुत्र बहादुर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की मदद से अपने भाई तारा आजम पर विजय पाई और वह बादशाह बना। बुलावे पर गुरु गोविंद साहब उसेदर्शन देने दो अगस्त 1707 को आगरा आए और यमुना किनारे ठहरे। बहादुर शाह ने गुरु जी को 1100 सोने की मोहरें भेंट कीं। यहीं बादशाह के हाथी का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया, जिसे गुरु साहब ने मुक्त कराया। तब बहादुर शाह ने विनती कर गुरु जी को अपने सिंहों के साथ किले में आमंत्रित किया। गुरु साहब जिस स्थान पर ठहरे, उस स्थान को आज गुरुद्वारा हाथी घाट के नाम से जाना जाता है, जहां हाथी पर बैठे बादशाह और हाथी के पैर मुंह में लिए मगरमच्छ की मूर्ति आज भी मौजूद हैं।