यमुना में दीपों की झिलमिलाएंगी श्रंखलाएं, जानिये आज के दिन का क्या है बटेश्वर में महत्व
देव दीपावली पर बुधवार शाम को बहते जल में दान किया जाएगा जलते हुए दीपों का। बटेश्वर में दिखेगा आज अलौकिक नजारा।
आगरा [सत्येंद्र कुमार दुबे]: शहर से सटा बाह तहसील के अंतर्गत आने वाला बटेश्वर। शिवालयों की नगरी, जिसे तीर्थों का भांजा भी कहा जाता है। सूर्यास्त के बाद यमुना का जल दीपों की रोशनी के मध्य झिलमिलाएगा। कार्तिक माह का अंतिम पड़ाव चल रहा है। बटेश्वर में मुख्य स्नान पर्व की पूर्व संध्या पर आज बैकुंठ चौदस के मौके पर पितरों की आत्मशांति के लिये सैंकड़ों की संख्या में लोग यमुना में जलते दीप दान करेंगे। बुधवार शाम यमुना का नजारा बड़ा ही मनोहारी दिखेगा। इस वर्ष गोलोकवासी हुए पूर्वजों के मोक्ष प्राप्त के लिये बटेश्वर मेले में बैकुंठ चौदस पर दीपदान पर्व मनाया जा रहा है।
ज्योतिषाचार्य पं प्रकाश बाबू ने बताया कि बैकुंठ चौदस पर दीपदान करने से पूर्वजों को स्वर्ग की राह में प्रकाश दिखाई देता है। इसी मान्यता के चलते दिल्ली, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के श्रद्धालु अपने पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिये चौदस को पांच जलते हुये दीये यमुना में विसर्जित करेंगे। इसके साथ ही एक- एक दीपक पंचमुखी महादेव मंदिर पर जलायेंगे।
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा स्नान पर्व महाभारत काल से गढ़ गंगा से प्रारंभ हुआ। महाभारत के युद्ध में मारे गये योद्धाओं की आत्मशांति के लिये गंगा किनारे श्रीकृष्ण की मौजूदगी में यज्ञ कर दीपदान किये गये थे।
बटेश्वर धार्मिक स्थल
इतिहास के पन्ने पलटे जाएं और बटेश्वर का नाम न आये शायद यह संभव नही। किवदंतियों में इस ऐतिहासिक- धार्मिक स्थल का नाम भगवान कृष्ण और द्वापर युग से जुड़ा है। बृज भूमि की प्रमुख घटनाओं से इसका गहरा नाता है। यह पावन धरती सिकंदर लोधी और शेरशाह सूरी जैसे आतातायी विदेशी आक्रमणकारियों की भी गवाह है। हिन्दू इसे तीर्थो का भांजा कहते है। इसलिये इसके महत्व की बात अब मायने नही रखती। जैन मतावलंबियों की आस्था भी कम नही। कालांतर में इसका महत्व भले ही बरकरार हो ,लेकिन 16वीं 17 वीं शताब्दी की बेजोड़ शिल्पकला आज बेहतर संरक्षण की बाट जोह रही है।
आगरा से 75 किमी दूर पावन नदी के दक्षिण पर स्थित बटेश्वर एक अत्यंत प्राचीन तीर्थ स्थान है। जानकारी हो इसका पुराना नाम सूरसेन था। जो भगवान श्री कृष्ण के पितामह महाराजा सूरसेन की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध था। बाद में सूरसेन शौरीपुर के नाम से प्रचलित हुआ। भगवान भी कृष्ण के पितामह वासुदेव यहां जन्में थे। भागवत पुराण के अनुसार वासुदेव की बारात यहां से मथुरा गई थी । बटेश्वर में भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और पौत्र अनिरुद्ध के नामों पर आज भी पदमनखेड़ा व औधखेड़ा नामक दो मोहल्ले है। महाभारत युद्ध के समय जब बलभद्र ने किसी का साथ न देकर तटस्थ रहने का निश्चय किया था। तब वे एकांत बास हेतु इसी पावन स्थल पर आये थे। कहते है कंस का शव यमुना में प्रवाहित हुआ था। तब बटेश्वर में आकर अटका था। तभी यहां कंस करार टीला प्रसिद्ध हुआ था। जो आज भी है। तीर्थ स्थल बटेश्वर बृज मंडल का एक भाग है। 84 कोस की परिक्रमा के अंर्तगत इसका समावेश होता है। इसी कारण बटेश्वर को सभी तीर्थो का भांजा कहा जाता है। यहां भगवान शंकर जी की पूजा का बड़ा महत्व है। काशी की तरह बटेश्वर के घाट दर्शनीय है। उन पर बने 101 मंदिर शिव भक्तों के आकर्षण के मुख्य केन्द्र बन जाते है। इसके अतिररिक्त तीर्थ धाम बटेश्वर जैन मतावलबियों के लिये भी श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र है। इस धर्म के 22वें तार्थकर श्री नैमिनाथ का अविभांव इसी भूमि से हुआ था। जो बौद्ध कालीन शिलालेख ताम्र पत्र तथा सिक्कों पर पाये गये थे। बटेश्वर के इतिहास के पृष्ठों पर खुद के मानचित्र बनते बिगड़ते देखा है। यह नगर स्वयं काल में थपेड़ों में पड़कर कई बार उजड़ा ओर बसा है। भदावर राज्य की राजधानी के रूप में बटेश्वर विदेशी आक्रमणकारियों का बड़ा निशाना रहा। 15वीं शताब्दी में सिकंदर लोदी छक्के छुड़ाने वाले वीर यही से हर हर महादेव का गगनभेदी घोष करते हुये अपने रण के लिये प्रणाम करते थे। शेरशाह सूरी ने भी यहां की तलवार के पानी से परेशान होकर आत्मरक्षार्थ एक किला बनवाया था। पानीपत के तीसरे युद्ध में अपने प्राणों की आहूति देने वाले मर्द मराठों की स्मृति में यहां एक भव्य मंदिर बनवाया गया था। यहां दीपक जलाकर इन वीर योद्धाओं को श्रद्धांजलि दी गई थी । यह ऐतिहासिक मंदिर आज भी बना हुआ है। जिसके ऊपर दीपक रखने के निशान आज भी देखे जा सकते है। मुगलों को मात देने के लिये अपनी मंत्रणाओं का मुख्य केन्द्र्र के रूप में बटेश्वर 16 वीं व 17 वीं शताब्दी में अपना अनोखा स्थान रखता है। प्राचीन काल के निर्माण शिल्पी वैज्ञानिक कितने आगे थे,इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बटेश्वर का वह बांध निर्माण ,जो यमुना नदी की धारा को पूरब से पश्चिम की ओर मोडऩे के लिये बनाया गया था। यह यमुना नदी पहले यहां पूर्व की ओर बहती थी । बाद में राजा बदन सिंह ने एक कोस लम्बा बांध बनवा कर यमुना नदी के प्रवाह को मोड़ दिया था। यमुना नदी के घाटों पर खड़े होकर इस अद्वितीय दिशा परिर्वतन को आज भी भलीभांति देखा जा सकता है।
अर्ध चंद्राकार नदी के तट पर स्थित शिव मंदिर जब पूर्णिमा के प्रकाश में चमकते हैं तो जल, थल, आकाश का अपूर्ण मिलन श्रद्धालु के मन को मोह लेता है। पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की संख्या में श्रद्धा का सैलाब यहां उमड़ता है। बटेश्वर की यमुना नदी में डुबकी लगाकर भगवान आशुतोष की पूजा अर्चना कर अपने जीवन को मंगलमय बनाने की कामना श्रद्धालु करते है।
ब्रह्मलाल मंदिर की विशेषता
यमुना के तट पर बने मंदिरों में बटेश्वर नाथ यानि ब्रह्मलाल मंदिर यमुना किनारे स्थित मंदिर श्रंखला के बीचों बीच बना है। यहां पर सुबह से लेकर शाम तक श्रद्धालुओं की दर्शन व पूजा के लिये कतार लगी रहती है। बाहर नंदी की मूर्ति प्रांगण में घंटों का पुंज जिसे बजाने के बाद श्रद्धालु मंदिर में प्रवेश करता है। अंदर बटेश्वर बाबा की पिंडी। यह मूर्ति पहले एक चबूतरे पर विराजमान थी। बाद में राजा बदन सिंह ने 1646 में मंदिर बनाकर प्रतिष्ठित कराया। अंदर शेष नाग मौजूद हैं। इसके बगल में गौरी शंकर मंदिर है, जिसके अंदर महादेव शिव परिवार सहित विराजमान मूर्ति की कलात्मकता अपने आप में अलग ही हैं। इसके बाद मोटेश्वर महादेव मंदिर मंदिर के अंदर लगी शिव लिंग ,इसी कतार में भीमशंकर, नर्मदेश्वर, रामेश्वर, नीलकेठेश्वर, पंचमुखी के बाद आखिर में गोकुल नाथ के दर्शन होते हंै। यहां गिर्राज धरण की भी मूर्ति स्थापित है। पुजारी बताते हैं कि बटेश्वर राजा सूरसेन की राजधानी थी। बाद में बांध बनाया गया फिर मंदिर स्थापित हुये । बटेश्वर नाथ के दाई ओर पातालेश्वर मंदिर मराठाओं से जुड़ा है। इसकी कला देखते ही बनती है। प्रांगण में विशाल स्तूप जिसमें दीपक बने हुये है। इतिहासकार डा बीपी मिश्र बताते है महाराष्ट्र सरदार नारू शंकर ने पानीपत के तीसरे युद्ध में मारे गये मराठा वीरों की स्मृति में इस विशाल मंदिर का निमार्ण कराया था। यह दक्षिण की शैली में बना मंदिर है। नारूशंकर ने लोगों को यमुना में दीपदान करते देखा था। उसी के लिये मंदिर में दीपक की जगह को स्थान दिया। इनके अलावा वनखंडेश्वर मंदिर जो उस समय बीहड़ में था उसी के किनारे से यमुना का प्रवाह होता।
बैकुंठ चौदस पर क्यों करते हैं दीपदान
बैकुंठ चतुर्दशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। यह पर्व भगवान शिव और भगवान विष्णु के एकाकार स्वरूप को समर्पित है। देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद से जागते हैं और चतुर्दशी तिथि पर भगवान शिव की पूजा करते हैं। इस तिथि पर जो भी मनुष्य हरि अर्थात भगवान विष्णु और हर अर्थात भगवान शिव की पूजा करता है, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है। ऐसा वरदान स्वयं भगवान विष्णु ने नारद जी के माध्यम से मानवजन को दिया था। इसीलिए इस दिन को बैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है।
बैकुंठ चौदस का धार्मिक महत्व
सतयुग की एक घटना का विवरण धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इसके अनुसार, जब भगवान विष्णु को अपनी भक्ति से प्रसन्न कर राजा बलि उन्हें अपने साथ पाताल ले गए, उस दिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। चार माह तक बैकुंठ लोक श्रीहरि के बिना सूना रहा और सृष्टि का संतुलन गड़बड़ाने लगा। तब मां लक्ष्मी विष्णुजी को वापस बैकुंठ लाने लिए पाताल गईं। इस दौरान राजा बलि को भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि वह हर साल चार माह के लिए उनके पास पाताल रहने आएंगे। इसलिए भगवान विष्णु हर साल चार माह के लिए पाताल अपने भक्त बलि के पास जाते हैं। जिस दिन मां लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु बैकुंठ धाम वापस लौटे, उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। इस दिन भगवान विष्णु के बैकुंठ लौटने के उत्सव को उनके जागने के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को श्रीहरि जागने के बाद चतुर्थी तिथि को भगवान शिव की पूजा के लिए काशी आए। यहां उन्होंने भगवान शिव को एक हजार कमल पुष्प अर्पित करने का प्रण किया। पूजा-अनुष्ठान के समय भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णुजी की परीक्षा लेने के लिए एक कमल पुष्प गायब कर दिया। जब श्रीहरि को एक कमल कम होने का अहसास हुआ तो उन्होंने कमल के स्थान पर अपनी एक आंख (कमल नयन) शिवजी को अर्पित करने का प्रण किया। जैसे ही श्रीहरि अपनी आंख अर्पित करनेवाले थे, वहां शिवजी प्रकट हो गए।
शिवजी ने विष्णुजी के प्रति अपना प्रेम और आभार प्रकट किया। साथ ही उन्हें हजार सूर्यों के समान तेज से परिपूर्ण सुदर्शन चक्र भेंट किया। भगवान शिव के आशीर्वाद और उनके प्रति विष्णुजी के प्रेम के कारण ही इस दिन को हरिहर व्रत-पूजा का दिन कहा जाता है। भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि जो भी मनुष्य कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी के दिन विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। इसीलिए इस तिथि को बैकुंठ चौदस तिथि भी कहा जाता है।
देवऋषि नारद से जुड़ी कथा
सतयुग में नारदजी देवताओं और मनुष्यों दोनों के ही बीच माध्यम का कार्य करते थे। वह चराचर जगत अर्थात पृथ्वी पर आकर मनुष्यों और सभी प्राणियों का हाल लेते और कैलाश, बैकुंठ लोक और ब्रह्मलोक जाकर चराचर जगत के निवासियों की मुक्ति और प्रसन्नता से जुड़े सवालों का हल प्राप्त करते। फिर अलग-अलग माध्यमों से वह संदेश मनुष्यों तक भी पहुंचाते थे। इसी क्रम में एक बार नारदजी बैकुंठ लोक में भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे प्राणियों की मुक्ति का सरल उपाय पूछा। तब भगवान विष्णु नारदजी से कहते हैं, जो भी प्राणि मन-वचन और कर्म से पवित्र रहते हुए, बैकुंठ चौदस पर पवित्र नदियों के जल में स्नान कर भगवान शिव के साथ मेरी पूजा करता है, वह मेरा प्रिय भक्त होता है और उसे मृत्यु के बाद बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है।