Kargil Vijay Diwas: देश के मोती, आगरा के लाल, पराक्रम से दुश्मन कर दिया परास्त Agra News
कारगिल के युद्ध में ताजनगरी के आठ रणबांकुरों ने दी थी शहादत। बहादुरी के किस्सों से आज भी गूंज रही गलियां।
आगरा, विनीत मिश्रा। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा। ब्रज की माटी की तासीर ही ऐसी है कि यहां वीर योद्धा पले-बढ़े हैं। जब कारगिल युद्ध में दुश्मन को धूल चटाने की बारी आई, तो ताजनगरी के वीर अपना सीना तान आगे आ गए। दुश्मन से लड़कर उन्हें हराने में ताजनगरी ने अपने दस लाल खो दिए। कारगिल युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए बेटों की जब अंतिम यात्रा निकली, तो उनके आखिरी दर्शन को पूरी ताजनगरी ने पलक-पांवड़े बिछा दिए।
शहीद श्यामवीर सिंह
जब कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने छद्म युद्ध छेड़ा तो उस समय अकोला के नगला जयराम निवासी श्यामवीर सिंह 17 जाट रेजीमेंट में नायक के पद पर तैनात थे। 9 जुलाई, 1999 को कारगिल की ऊंची चोटियों पर वह दुश्मन से मोर्चा संभाले थे। यही वह दिन था जब वह कारगिल युद्ध में दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हो गए।
शहीद रामवीर सिंह
खेरागढ़ तहसील क्षेत्र का गांव रिठौरी निवासी रामवीर सिंह सेना की 17 वीं जाट रेजीमेंट में लांस नायक थे। युद्ध के दौरान कारगिल क्षेत्र में उनकी तैनाती थे। एक साथ एक दर्जन से अधिक दुश्मनों को मार दिया, तभी एक गोली उनके लगी, लेकिन वह डटे रहे और दुश्मन से लड़ते-लड़ते 7 जुलाई, 1999 को वह शहीद हो गए। रामवीर सिंह की शहादत की खबर जैसे ही ताजनगरी में आई हर आंख आंसुओं में डूब गई।
शहीद धर्मवीर सिंह
खंदौली क्षेत्र के गांव मलूपुर निवासी धर्मवीर सिंह कारगिल युद्ध के समय अविवाहित थे। जब युद्ध शुरू हुआ तो धर्मवीर नापाक दुश्मनों से मातृभूमि की रक्षा में सीना तान खड़े हो गए। 30 मई 1999 को जबर्दस्त लड़ाई हुई। वह बेहद बहादुरी से लड़े और लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। बेटे की शहादत का जिक्र चलने पर मां श्रीमती और पिता खजान सिंह आज भी गर्व से भर उठते हैं।
शहीद हसन मोहम्मद
कारगिल युद्ध के समय जब पाकिस्तानी सेना और घुसपैठियों के साथ लड़ाई शुरू हुई तो देश का हर वीर जवान प्राण न्योछावर करने को आतुर था। ऐसा ही जवान था हसन। गैहरी कला निवासी हसन मोहम्मद का निकाह नूर फातिमा के साथ हुई था। अभी नूर के हाथों की मेंहदी भी न छूटी थी। निकाह को महज तीन माह ही हुए थे। 3 जुलाई, 1999 को कारगिल युद्ध में हसन मोहम्मद शहीद हो गए।
शहीद हरेंद्र सिंह
आगरा शहर स्थित सदर बाजार निवासी हरेंद्र सिंह भारतीय सेना में नायक थे। कारगिल युद्ध के बाद कारगिल में ही ऑपरेशन पराक्रम चलाया गया ताकि दुश्मन का एक भी निशान कहीं बाकी न रहे। अभियान सफल रहा। इस ऑपरेशन में हरेंद्र सिंह ने भी सहभागिता की। अपने पराक्रम से उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। 4 जून 2002 को वह शहीद हो गए।
शहीद मोहन सिंह राजपूत
शहीद मोहन सिंह राजपूत। ये नाम उखर्रा के बच्चे-बच्चे की जुबान पर आज भी अमर है। मोहन सिंह सेना में सैनिक थे। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी तैनाती सबसे दुर्गम मानी जाने वाली चोटी टाइगर हिल्स पर थी। 24, 1999 को उन्होंने पहाड़ी से दुश्मन पर गोलियां दागीं और कई दुश्मन ढेर कर दिए, लेकिन बाद में वह भी वीरगति को प्राप्त हुए।
शहीद लायक सिंह
जनपद के बीहड़ वाले इलाके बाह तहसील का कोरथ गांव आज भी अपने लाल नायक सूबेदार लायक सिंह पर फिदा है। कारगिल युद्ध छिड़ा तो लायक ने दुश्मनों का बहादुरी से सामना किया और देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। लायक सिंह ने जब कारगिल में युद्ध लड़ा तो उनके पराक्रम के आगे दुश्मन को नाकों चने चबाने पड़े। लेकिन 19 जून 1999 को दुश्मन से लोहा लेते समय वह शहीद हो गए।
शहीद कुमर सिंह
वह कारगिल की दुर्गम पहाडिय़ां थीं। कारगिल के ऑपरेशन विजय के दौरान कायर पाकिस्तानी घुसपैठिये और उनके पीछे छिपे दुश्मन फौजी गोलियां दाग रहे थे। लेकिन, फतेहपुर सीकरी के सपूत कुमर सिंह न डरे, न पीछे हटे। दुश्मन की गोलियों का जवाब देते रहे। देखते ही देखते कई दुश्मन ढेर कर दिए। आखिर गांव बसेरी निवासी कुमर सिंह 7 जुलाई, 1999 को शहीद हो गए। सेना में उन्हें वीर चक्र भी मिला था।
शहीद जितेंद्र सिंह
जिले की बाह तहसील में युवाओं में सेना में भर्ती होने का आज भी गजब का जुनून है। यहां की माटी ने कई वीर जवानों को जन्म दिया। क्षेत्र के गांव खंडेर में रहने वाले जितेंद्र सिंह भी ऐसे ही वीर सैनिक थे जो सेना में लांस नायक के पद पर थे। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी तैनाती जम्मू-कश्मीर में थी। युद्ध के दौरान उन्हें अग्रिम मोर्चे पर भेजा गया। 21 जुलाई, 1999 को वह दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गए।
शहीद अमरुद्दीन
मैनपुरी के किशनी कस्बा निवासी अमरुद्दीन का परिवार इस समय आगरा के ताजगंज में रहता है। परिवार के जेहन में अमरुद्दीन की वीरता की यादें आज भी ताजा हैं। युद्ध के समय वह कारगिल के बटालिक सेक्टर खालू बार में तैनात थे।3 जुलाई, 1999 को वह शहीद हो गए। इनकी माता मोमिना बेगम और बेटा आरिफ और तारिक हैं। आज दोनों बेटे अपना व्यवसाय कर रहे हैं।
वतन से मोहब्बत में शहादत
ये मोहब्बत की नगरी है। यहां वतन से मोहब्बत करने वालों की भी कमी नहीं है। युद्ध जैसा जब हुआ हो, ताजनगरी के लाल हर युद्ध में सीना तानकर खड़े हो गए। हर युद्ध में शहादत दी, लेकिन दुश्मन को धूल चटा दी। अब तक हुए युद्धों में आगरा की मिट्टी में जन्मे या यहां पले-बढ़े 82 जांबाजों ने जान दी।
आगरा की माटी में वीर सपूत पलते हैं। गांव-गांव युवा सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे हैं। चाहे युद्ध चीन से हुआ हो, या फिर पाकिस्तान से। उन शहीद परिवारों को भी सलाम, जिन्होंने परिवार में शहादत के बाद भी अपने बेटों को भी सेना में भेज दिया। एक-एक परिवार के चार से पांच लोग सेना में देश की सेवा कर रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों से लोहा लेने में भी अपने लाल पीछे नहीं रहे। ये ताजनगरी की माटी की तासीर है कि यहां एक भी वीर योद्धा युद्ध में जान देने से पहले तक नहीं सोचता।
अब तक हुए युद्ध में शहीद सैनिक
युद्ध शहीद सैनिक
1975
1962 चीन के खिलाफ 8
1965 पाक के खिलाफ 9
1971 पाक के खिलाफ 13
1989 ऑपरेशन ब्लू स्टार 1
1999 कारगिल युद्ध 10
ऑपरेशन पवन 4
ऑपरेशन रक्षक 27
ऑपरेशन रीनो 1
ऑपरेशन फेलकॉन 1
ऑपरेशन बीसी 1
पुलवामा कांड 1
उग्र्रवादियों से मुठभेड़ 1
अन्य युद्ध में 4
... पर ये कैसा नमन!
है नमन उनको कि जो इस देह को अमरत्व देकर, इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं/ है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय, जो धरा पर गिर पड़े और आसमानी हो गए हैं .....। ये पंक्तियां उन वीरों के लिए गढ़ी गईं, जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। शहादत पर नेताओं से लेकर अफसरों तक ने बड़े-बड़े वादे किए थे, लेकिन उधर शहीद की चिता की राख ठंडी भी नहीं हुई, जिम्मेदार अपने वादे भूलने लगे। कहीं स्मारक नहीं बना, तो कहीं नौकरी का वादा पूरा नहीं हुआ। कारगिल युद्ध के २० बरस बाद भी वादे पूरे नहीं हुए। शहीद के परिवारों की उम्मीदें पलकों पर टिकी हैं।
वादा कर भूल गए जमीन देना
ऑपरेशन पराक्रम में शहीद हुए हरेंद्र सिंह के पिता रामवीर भी सेना में थे। खुद रिटायर हुए तो बेटे को देश की सेवा के लिए भेज दिया। शहादत के वक्त तीन एकड़ कृषि योग्य भूमि देने को कहा गया था, आज तक नहीं मिली। शहीद स्मारक गांव जौनोई में बनाने का वादा किया था, लेकिन प्रशासन ने उसमें भी मदद नहीं की। अपने स्तर से परिजनों ने स्मारक बनवाया। एक स्कूल का नामकरण भी शहीद के नाम करने की संस्तुति की गई, लेकिन हुआ कुछ नहीं। बहन लक्ष्मी बताती हैं कि वादे पूरे कराने के लिए जनप्रतिनिधियों से लेकर अफसरों तक हजारों चक्कर लगाए, लेकिन किसी ने नहीं सुनी।
स्मारक पर भूमाफिया की नजर
कारगिल शहीद मोहन सिंह राजपूत का शहीद स्थल उखर्रा गांव में बना है। शहीद स्मारक पर अब कॉलोनाइजर की नजर है। तारों की फेंसिंग और बाउंड्रीवाल भी तोड़ दी गई। वह स्मारक से लगी जमीन पर कब्जा कर उसे बेचना चाहते हैं। बेटी अंजना राजपूत बताती हैं कि इसके लिए उन्होंने अफसरों के चक्कर लगाए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। भूमाफिया कब्जा करना चाहते हैं और प्रशासन चुप है।
...और भूल गए शहादत
19 जून, 1999 को जब बाह के कोरथ निवासी नायब सूबेदार लायक सिंह शहीद हुए थे, तब केंद्र सरकार ने 1.20 लाख देने का ऐलान किया। पेट्रोल पंप और १२ बीघा कृषि योग्य जमीन के आवंटन का ऐलान हुआ। मां-पिता को 2500-2500 रुपये पेंशन और शहीद मार्ग व शहीद स्मारक बनवाने की घोषणा की। भाई सतेंद्र बताते हैं कि विधायक निधि से शहीद मार्ग का निर्माण हुआ। कागजों में 12 बीघा जमीन का आवंटन हुआ, कब्जा आज तक नहीं मिला। 1.20 लाख रुपये आज तक नहीं मिले। अफसरों के पास दौड़ते हैं, लेकिन कोई नहीं सुनता। पत्नी शकुंतला देवी ने पति की यादें सहेजने को शहीद स्मारक का निर्माण कराया।
नहीं बन सका पार्क
22 वर्ष की उम्र में शहीद होने वाले हसन मोहम्मद के परिवार की मुश्किलें भी कम नहीं रहीं। सरकार से शहीद के मकबरे के लिए जमीन मिली, लेकिन वह भी विवादित थी। पांच साल तक कोर्ट में लड़ाई लडऩे के बाद जमीन मिली। केंद्र सरकार से पेट्रोल पंप, मकबरे के लिए जमीन, पेंशन आदि मिली, लेकिन लंबे संघर्ष के बाद। शहीद स्मारक पर पार्क का निर्माण आज तक नहीं हुआ।
ऐलान के बाद भी नहीं मिली पूरी जमीन
लांस नायक रामवीर सिंह के परिजनों को छह बीघा जमीन के आवंटन का वादा था, लेकिन दो बीघा ही मिल सकी। पूरी जमीन के लिए संघर्ष किया, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा।
प्रतिमा लगाने का वादा ही भूले
बसेरी निवासी शहीद कुमर सिंह की प्रतिमा लगवाने का प्रशासन ने शहादत के समय वादा किया था। परिजन अपना ही वादा पूरा कराने को अफसरों के चक्कर लगा-लगाकर थक गए। लेकिन अफसरों ने उसे कान नहीं दिया।
16 साल लकड़ी के बॉक्स में बंद रही प्रतिमा
शहीद की आत्मा अपनी प्रतिमा की हालत देख जरूर रोती होगी। मैनपुरी के किशनी कस्बा निवासी शहीद हवलदार अमरुद्दीन की प्रतिमा लगवाने का तत्कालीन सांसद मुलायम सिंह यादव ने आश्वासन दिया। उन्होंने अपनी निधि से प्रतिमा बनवाई। लेकिन, प्रशासन प्रतिमा लगवाने को जमीन नहीं दे पाया। 16 साल तक प्रतिमा लकड़ी के बॉक्स में बंद जमीन मिलने का इंतजार करती रही। आखिर प्रतिमा खराब हो गई। बाद में परिजनों ने नई प्रतिमा अपने ही पेट्रोल पंप की जमीन पर लगाई।
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