चंबल में मिलते हैं दुर्लभ कछुए
जागरण संवाददाता, आगरा: कभी डाकुओं के सुरक्षा कवच रहे चंबल के बीहड़ अब बदल रहे हैं। अपेक्षाकृत प्रदूष
जागरण संवाददाता, आगरा: कभी डाकुओं के सुरक्षा कवच रहे चंबल के बीहड़ अब बदल रहे हैं। अपेक्षाकृत प्रदूषण रहित चंबल नदी की धारा दुर्लभ प्रजाति के कछुओं, डॉल्फिन, मगरमच्छ और घड़ियाल को जीवन दे रही है। चंबल में आधा दर्जन से ज्यादा प्रजाति के कछुए पाए जाते हैं, जिसमें कुछ दुर्लभ और विलुप्तप्राय हैं।
चंबल नदी राजस्थान, मध्य प्रदेश और उप्र में होकर बहती है। यहां बाह में राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी प्रोजेक्ट में विलुप्त प्राय प्रजातियों का संरक्षण किया जा रहा है। यहां कछुओं की आधा दर्जन से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। कछुओं का नेस्टिंग का समय मार्च से शुरू होता है। जून-जुलाई में वह हैचिंग करते हैं। राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी प्रोजेक्ट के उपवन संरक्षक संजीव कुमार ने बताया कि कछुए की सभी प्रजातियां संरक्षित श्रेणी में हैं। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अनुसार कछुओं की तस्करी में दो से सात साल तक की सजा का प्रावधान है।
कछुए जो यहां मिलते हैं
मोरपंखी: इन कछुओं का बाहरी कवच मुलायम होता है। यह मासपेशियों से बना होता है। यह मांसाहारी होते हैं तथा नदियों व तालाबों में मरे, सड़े-गले जीव-जंतुओं को खाकर जल को स्वच्छ करते हैं। नर कछुए मादा से आकार में बड़े और स्वभाव से आक्रामक होते हैं।
साल: इनका बाहरी कवच कठोर होता है। यह पूरी तरह अस्थियों से बना होता है। यह शाकाहारी होते हैं और नदी व तालाब की सड़ी-गली वनस्पति खाकर पानी को साफ करते हैं। नर कछुए मादा से आकार में छोटे व आकर्षक होते हैं। यह स्वभाव से सरल व शर्मीले होते हैं।
सुंदरी: यह दक्षिण एशिया में साफ पानी में पाई जाने वाली कछुओं की प्रजाति है।
कटहेवा: यह कछुए 94 सेमी तक बड़े होते हैं। इनके कवच पर गोले बने होते हैं।
पचेड़ा: इसका कवच टेंट की तरह होता है और आंखों के पीछे भूरे व लाल रंग के डॉट्स होते हैं। यह आकार में छोटे होते हैं। मादा पुरुष से बड़ी होती है।
तिलकधारी कछुआ: चंबल में तिलकधारी कछुआ भी मिलता है। इसके सिर पर लाल रंग की धारियां होती हैं, जिससे यह काफी आकर्षक नजर आता है। यह शेड्यूल वन में शामिल है और दुनिया में इनकी संख्या काफी कम है।
यह भी मिलते हैं
इंडियन स्टार, धमोक, चौड़।
वास्तुशास्त्र के चलते बढ़ रही तस्करी
वास्तुशास्त्र में कछुए को घर में रखने का विशेष महत्व है। माना जाता है कि इससे घर में सुख समृद्धि आती है। यही वजह है कि इसकी तस्करी लगातार बढ़ रही है। चंबल के आस-पास बड़े कछुओं के साथ घर में रखे जाने योग्य छोटे कछुए भी पाए जाते हैं। पिछले दिनों तस्करों से स्पोडिड पोंड टर्टल बरामद किए गए थ। विशेषज्ञों के अनुसार यह कछुए जियोटलिनिस जीनस प्रजाति के थे और इनका उपयोग एक्वेरियम के साथ ही यौन वर्धक दवाओं में भी किया जाता है।
1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे हुए इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य घोषित किया था। यहां रेड क्त्राउंड रूफ टर्टल यानी गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले शाल कछुए) का संरक्षण भी किया गया। लेकिन इन कछुओं के तस्कर भी यहां सक्रिय हो गए।
पंश्चिम बंगाल के रास्ते विदेश जा रहे कछुए
कछुओं की सप्लाई पश्चिम बंगाल और बाग्लादेश के रास्ते चीन, हागकाग और थाईलैंड जैसे देशों तक की जाती है। वहा लोग कछुए के मास को पसंद करते हैं। साथ ही इसे पौरुषवर्धक दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। इन तमाम देशों में कछुए के सूप और चिप्स की जबरदस्त माग है।
तंत्र-मंत्र में भी प्रयोग
चीन में लोग कई तरह के पूजा-पाठ और भविष्यवाणी के लिए कछुओं की खाल का इस्तेमाल लंबे अरसे से करते आए हैं। यह परंपरा 1,000 ईसा पूर्व यानी शाग काल से चली आ रही है। कछुए की खाल के जरिए भविष्य बताने की कला को किबोकू कहा जाता है। इसमें कछुए के खोल को गर्म करके उस पर पड़ने वाली दरारों और धारियों को पढ़कर भविष्य जाना जाता है। इसी तरह चीन के लोग कछुए के खोल की जेली बनाकर दवाओं में इस्तेमाल करते हैं। कछुओं के खोल से तरह-तरह का सजावटी सामान, आभूषण, चश्मों के फ्रेम आदि भी बनाए जा रहे हैं। भारत में भी दीपावली और अन्य अवसरों पर कछुओं का उपयोग तंत्र-मंत्र में किया जाता है।
विदेशों में है काफी डिमांड
एसटीएफ की कार्रवाई के बाद कछुओं की तस्करी कुछ हद तक रुकी है। मगर उनके शिकार पर रोक नहीं लग पा रही है। वर्ष 2016 में कीठम में जाल में फंसकर कछुओं ने दम तोड़ दिया था। वहीं, तंत्र-मंत्र के लिए भी कछुओं का शिकार किया जाता है। तिलकधारी कछुए की सिंगापुर, मलेशिया व हांगकांग में काफी मांग है। यह एक लाख से अधिक रुपये तक में वहां बिकता है।