पांच रुपये में थाली, रह न जाए कोई भूखा, ताजनगरी में चल रही ये सेवा Agra News
23 साल पहले एक हादसे ने बदल दिया रश्मि मगन का जिंदगी जीने का नजरिया। एसएन में आने वाले मरीजों और तीमारदारों के लिए 2008 से चला रहीं कैंटीन।
आगरा, अली अब्बास। हादसे सभी के साथ होते हैं, मुश्किलें भी सभी के सामने आती हैं। मगर, ये हादसे कुछ लोगों का जिंदगी जीने का नजरिया बदल देते हैं। रश्मि मगन के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। तेइस साल पहले सरकारी अस्पताल का एक महीने चक्कर काटने के बाद वहां आने वाले मरीजों और उनके तीमारदारों की मुश्किलों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। दूरदराज से आने वाले मरीज और उनके तीमारदारों के लिए खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं थी। रश्मि मगन ने इस दिशा में 20 साल पहले एक छोटी सी पहल की, जो अब एक वृक्ष का रूप ले चुकी है। वह एसएन में वर्ष 2008 से कैंटीन चला रही हैं, इसमें लोगों को पांच रुपये में खाने की थाली मुहैया कराती हैं। सुबह दलिया और चाय फ्री में देती हैं।
हरीपर्वत के आजाद नगर, खंदारी निवासी शहर के लेदर कारोबारी अनिल मगन की पत्नी रश्मि मगन (65) के परिवार में वर्ष 1996 में एक हादसा हुआ। जिसके चलते उन्हें एक महीने सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटने पड़े। रश्मि मगन बताती हैं कि उनके लिए घर से खाना आता था। इसे वह अन्य मरीजों के तीमारदारों को भी बांट देती थीं। सरकारी अस्पताल में इलाज कराने वाले अधिकांश लोग आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। इसलिए वह मरीज के साथ बिना खाए-पीए उसकी तीमारदारी में लगे रहते। वहां रहने के दौरान उन्होंने उनका दर्द और दिक्कतें महसूस कीं।
उनके लिए कुछ करने की सोची। वर्ष 2000 में उन्होंने एसएन जाना शुरू किया। वह घर से खाना बड़े टिफिन में भरकर ले जातीं। मरीज और उनके तीमारदारों को विभिन्न वार्ड में जाकर देतीं। धीरे-धीरे अस्पताल के लोग भी उन्हें पहचानने लगे। उनके इस काम के बारे परिवार, रिश्तेदार और परिचित महिलाओं को पता चला। वह भी अपने यहां से खाना बनाकर उन्हें देने लगीं। रश्मि मगन बताती हैं कि वर्ष 2004 में उन्होंने इसे संगठित रूप से करने के लिए संकल्प चैरिटेबिल इंस्टीट्यूशन बनाया। वर्ष 2007 में एसएन के तत्कालीन प्राचार्य ने उन्हें घड़ी वाली बिल्डिंग के पास जगह दी। यहां पर उन्होंने वर्ष 2008 में कैंटीन बनाई, ताकि मरीजों और उनके तीमारदारों के लिए वहीं पर खाना बनाया जा सके। यह कैंटीन लोगों के सहयोग से चलती है। यहां लोगों को पांच रुपये में खाने की थाली दी जाती है। जबकि मरीजों के लिए रोज सुबह सात बजे से दस बजे तक दलिया और चाय फ्री में दी जाती है। जबकि कैंसर के मरीजों को दूध और डायलिसिस वालों को सप्ताह में दो बार सेब दिया जाता है। एसएन समेत शहर में यह कैंटीन अपनी एक पहचान बना चुकी है।
कैंटीन के लिए खुद मसाले बनाकर बाजार में बेचे
एसएन में कैंटीन के लिए जमीन मिलने के बाद उसे बनाकर तैयार करने की चुनौती थी। इसके लिए रश्मि मगन बताती हैं उन्होंने घर पर मसाले बनाकर बाजार में बेचे। इससे कि कैंटीन बनकर तैयार हो सके। मसालों को बेचने में परिचित महिलाओं और रिश्तेदारों ने उनकी काफी मदद की। इसी के चलते मरीजों और तीमारादारों के लिए सस्ते और अच्छे खाने की कैंटीन बन सकी।
लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया
हम तो अकेले ही चले थे जानिब ए मंजिल, मगर लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया... रश्मि मगन बताती हैं कि वह अकेली नहीं हैं, मदद करने वाले लोगों के हाथ बढ़ते गए। यह छोटी सी शुरूआत विशाल वृक्ष का रूप ले चुकी है। इसमें बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपना नाम नहीं चाहते, चुपचाप मदद करने में विश्वास रखते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए दवाओं का इंतजाम भी करते हैं।
नत्थी और किशोर के दर्द से आज भी नम हो जाती हैं आंखें
किसान नत्थी और एक किशोर का दर्द याद करके रश्मि मगन की आंख 18 साल बाद भी नम हो जाती हैं। वर्ष 2001 की बात है, उन्हें पता चला कि अस्पताल में भर्ती किसान नत्थी लाल को खून की जरूरत थी। वह उसे खून देने के लिए गई थीं। वहां उसकी और परिवार की गरीबी देखी। उसके लिए रोज खाना लेकर जाने लगीं। उसके पेट में अल्सर था, जो फूट गया। परिवार ने उसके इलाज में अपनी जमीन आदि सब कुछ बेच दिया। मगर, वह नहीं बचा। दूसरी घटना वर्ष 2002 की है, एक किशोर के दोनों पैर हादसे में कट गए। उसे निजी अस्पताल से एसएन में भर्ती कराया। यहां पता चला कि किशोर के तीमारदार समेत अन्य भूखे पेट सोते हैं। उनके कष्ट को याद करके आज भी द्रवित हो उठती हैं।