पुरखों का पुण्य स्मरण
पुरखों का पुण्य स्मरण की गई है- हे ईश्वर, मेरा पुत्र मुझे मेरे जीवन-काल में पराजित करे, तब मेरी मुक्ति हो। तात्पर्य यह है कि पिता का धर्म यही है कि वह अपनी संतति को स्वयं से अधिक योग्य बनाए। प्रत्येक क्षेत्र में अपने से आगे करे, तब अपने दायित्वों
पुरखों का पुण्य स्मरण की गई है- हे ईश्वर, मेरा पुत्र मुझे मेरे जीवन-काल में पराजित करे, तब मेरी मुक्ति हो। तात्पर्य यह है कि पिता का धर्म यही है कि वह अपनी संतति को स्वयं से अधिक योग्य बनाए। प्रत्येक क्षेत्र में अपने से आगे करे, तब अपने दायित्वों का निर्वहन पूर्ण समझे। इसके समानांतर पुत्र का धर्म यह है कि वह अपने पिता या पुरखों की यश-स्मृति को स्थायी बनाए और उनके पवित्र उदात्त संकल्पों को साकार करे।
ऐसे पिता, जो पृथ्वी पर पुत्र के लिए भगवान के पर्याय बनकर प्रस्तुत होते हों, अपनी संतति के लिए पूज्य हैं। विशेषकर तब, जब वे स्मृति-शेष हो चुके हों। इसलिए अपने यहां पितरों या पुरखों के स्मरण के लिए भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की पूरी अवधि निर्धारित है, जिसे पितृ पक्ष कहा जाता है। यह वह अवधि है, जब पुरखों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हुए उन्हें पिंडदान किया जाता है।
डीएनए से आज व्यक्ति के कुल-वंश या गुण-सूत्र जानने की वैज्ञानिक प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं, जबकि हमारे यहां अनादि काल से पुत्र या संतान में पिता के रूपांतरण की प्राचीन मान्यता है। पिता या पुरखे अपने पुत्र या संतति में विकसित होते हैं। कहा जाता है कि संतति का विकास ही पितृ-संकल्पों को क्रमश: पूरा करने या आगे बढ़ाने के लिए होता है।
मान्यता यह भी है कि पौत्र जब पिंडदान करता है, तभी उसके दादा को असली मुक्ति मिलती है। अर्थात पुत्र की उत्पत्ति करने का एक लक्ष्य अपने पिता को मुक्ति देने का मार्ग प्रशस्त करना है। मूल बात यह है कि पीढिय़ों के संबंध परस्पर दायित्व-संकल्पों के क्रमश: निर्वहन के ही प्रतीक हैं। पिता के सपने पुत्र के मूल संकल्प बनें, तभी यह पुत्र-धर्म का सच्चा निर्वहन हुआ।
श्राद्ध का तात्पर्य ही है अपने पुरखे-पितरों को विशेष श्रद्धा के साथ याद करना। जिन्होंने हमें तन और जीवन दिया है, उनसे अधिक प्रत्यक्ष देवता भला दूसरा कौन हो सकता है! च्गरुड़ पुराणज् के अनुसार, पुरखों के तर्पण के लिए पुत्र या पुरुष परिजन ही नहीं, अपितु पुत्री या परिवार की स्त्रियां भी अधिकृत हैं। संदर्भित श्लोक दृष्टव्य है : पुत्राभावे वधु कूर्यात भार्याभावे च सोदन: / शिष्यो वा ब्राह्मण: सपिण्डो वा समाचरेत॥ / ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृ:पुत्रश्च पौत्रके / श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खग:॥
इसका तात्पर्य यह है कि मृतक के बेटे न हों तो बहू, पत्नी या पुत्री को श्राद्ध करने का अधिकार है। पत्नी न हों तो भाई, भतीजा, भांजा, नाती, पोता आदि में से कोई भी निकट संबंधी यह कर्म पूरा कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र अथवा कोई भी संबंधी अथवा कुल पुरोहित श्राद्ध कर्म पूरा कर या करा सकता है। च्वाल्मीकि रामायणज् में एक कथा है, जिसके अनुसार, श्रीराम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में सीता जी ने दशरथ जी का पिंडदान बिहार के गया में फल्गु नदी के तट पर किया था।