नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण | Ramcharitmanas: श्रीरामचरितमानस में कुछ भी अन-औचित्य, त्याज्य और अप्रिय नहीं है। यह सभी धर्मों और प्राणी मात्र के हित का समर्थक ग्रंथ है। उसमें न कोई विवाद है, ना ही कोई परहेज। कौन पिता ऐसा है, जो अपने पुत्र के सुयश को सुनकर हर्षित और प्रफुल्लित न होता हो। मानस में तुलसीदास जी बिना किसी धर्म और जाति का नाम लिए हुए यह कहते हैं कि धन्य है उस पुत्र का जन्म, जिसके सुंदर चरित्र की चर्चा सुनकर पिता को आनंद आता हो :
धन्य जनम जग तीतल तासू।
तहिं प्रमोद चरित सुनु जासू।।
यह है श्रीरामचरितमानस की सार्वकालिक व्यापकता और प्रांसगिकता। श्रीभरत ने चित्रकूट जाकर भगवान श्रीराम से यही कहा कि :
महाराज अब कीजिअ सोई।
सब कर धरम सहित हित होई।।
भगवान श्रीराम ने भरत को अपनी पादुकाएं दे दीं। श्रीभरत को लगा कि ये पादुकाएं न होकर साक्षात श्रीराम और सीता ही हैं। मानस तो जड़ में भी चैतन्य का ही दर्शन कराता है, पर यदि किसी को इसमें भी जड़ता दिखे तो फिर यही कहेंगे कि :
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।
राम रूप देखहिं किमि दीन्हा।
अर्थात जिनके मन का दर्पण गंदा है और राम को देखने वाले नेत्रों का अभाव है, उन्हें राम कैसे दिखाई देंगे?
श्रीरामचरितमानस किसी व्यक्ति की रचना नहीं है। लोकदृष्टि से इसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्वयं लिखा है :
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमय सिवा सन भाषा।
इस ग्रंथ का परम लक्ष्य समाज कल्याण और सबका हित है। यह वह कथा है, जो संपूर्ण लोक का हित करने वाली है :
कथा जोसकल लोक हितकारी।
सोइ पूछन चह सैल कुमारी।।
गंगा के समान सबके कल्याण की भावना ही तुलसीदास जी का उद्देश्य है। मानस के राम तो अपने विरोधी रावण का भी हित चाहते हैं। अंगद को लंका भेजते समय रामजी कहते हैं कि अंगद! रावण से संवाद करते समय इस बात का ध्यान रखना कि हमारा कार्य हो जाए और रावण का भी कोई अहित न हो :
काज हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेउ बतकई सोई।।
जिन राम ने अहिल्या के दोषों को न देखकर उसका उद्धार कर दिया। जिन राम ने भक्तिमती शबरी को मां के बराबर सम्मान दिया और गीधराज जटायु को पिता तुल्य मानकर उनका संस्कार किया। जो ऋषि-मुनियों के आश्रमों में जाकर आश्वासन देते हैं कि मैं इस पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त कर दूंगा। पूरे वनवास काल में जिन्होंने सबको सुख और आनंद देने का ही महत् कार्य किया। वेद स्वयं जिनकी स्तुति करते हैं, शंकर जी के जो आराध्य हैं। जिनकी करुणा, कृपा और भक्तवत्सलता की कहानियों से पुराण भरे पड़े हैं, हमें अपनी वाणी का उपयोग उनके गुण गाने के लिए करना चाहिए। नेत्रों से उनके दर्शन करने चाहिए और कानों से उनकी यशोगाथा सुननी चाहिए। पैरों का उपयोग उनके तीर्थों में जाने में करना चाहिए। हाथों से प्रभु की पूजा और उनके चरण स्पर्श करना चाहिए। यदि फिर भी संसार में यदि कोई ऐसा प्राणी है, जिसको भगवान राम में, तुलसीदास में और श्रीरामचरितमानस में कुछ अनुपयुक्त लगता है, तो यह खेद की बात है। श्रीरामचरितमानस में भगवान शंकर ने कुछ पंक्तियां कही हैं :
बातुल भूत बिबस मतबारे।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।।
जिनको वायु का रोग हो गया है, सन्निपात से ग्रस्त होने के कारण जिनका संतुलन अपनी वाणी से समाप्त हो गया है, जिन्होंने भूत के वश में होकर मोह की मदिरा पी रखी है और उसी के नशे में उन्मत्त हो चुके हैं, उनकी बात को सुनकर भी अनसुना कर देना चाहिए। राम सूर्य हैं। वे सबको देखते हैं, पर उनकी शुद्धता और व्यापकता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लग सकता है। यदि कोई ऐसा करे भी तो आकाश में तीर चलाते रहिए। राम पहले भी थे, अभी हैं और बाद में भी रहेंगे। भगवान सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, जल और वायु रूप में हमारे जीवन का आधार हैं। उनके बिना पूरी सृष्टि का कोई अस्तित्व ही नहीं है। राम सबके प्रिय, सबके हितकारी हैं। वे दुख, सुख, प्रशंसा और अपशब्द सुनकर भी एकरस रहते हैं। उन्होंने रामराज्याभिषेक में केवट को आमंत्रित कर सर्वाधिक सम्मान दिया और कहा कि तुम मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हो। श्रीराम ने कहीं पर भी विजय के पश्चात किसी सत्ता का उपभोग नहीं किया। केवल और केवल कृपा की। राम ने ही नहीं, अपितु उनके किसी भी भक्त ने भी सत्ता का लोभ और भोग नहीं किया। बुध कौशिक ऋषि कहते हैं :
माता रामो मत्पिता रामचन्द्र:
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्र:
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने।
अर्थात मेरे माता, पिता, सखा, स्वामी सब राम हैं, राम के अतिरिक्त मैं संसार में और किसी को नहीं जानता हूं। इसका तात्पर्य है कि सबमें राम ही हैं। मैं सबमें राम को ही देखता हूं। मैं राम के अतिरिक्त न कुछ जानता हूं, न ही जानना चाहता हूं। सारे ऋषि, मुनि, भक्त झोपड़ियों में रहकर अपना सर्वस्व राम को ही मानते हैं। जो राम गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी, सबके द्वारा सेवित और पूजित हैं, उनको मान लेना और पूज लेना ही हमारा स्वार्थ है, वही हमारा परमार्थ है।