नई दिल्ली, डॉ. दलबीर सिंह: गुरु गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु थे। पिता गुरु तेग बहादुर जी की मृत्यु के उपरांत 11 नवंबर, 1675 में वह गुरु बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक गुरु थे। वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की थी। उन्होंने सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। ‘बिचित्र नाटक’ को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के बारे में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह ‘दसम ग्रंथ’ का एक भाग है। उन्होंने मुगलों तथा उनके सहयोगियों के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान दिया, जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है।
कई ग्रंथों की रचना की
इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वह कलगीधर, दशमेष, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परंपरा में अद्वितीय थे, वहीं वह स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। वह विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 संत कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता है। वह भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता और भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता और सौम्यता से उसे परास्त कर दिया।
सरल स्वभाव के थे गुरु गोविंद सिंह
गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को न तो किसी से डरना चाहिए और ना ही किसी को डराना चाहिए। वह बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग ही सत्य का मार्ग है और सत्य की ही सदैव विजय होती है। गुरु गोविंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया लेकर आया।