फाल्गुन पूर्णिमा होली को ही सृष्टि के प्रथम पुरुष मनु की जन्मतिथि है
मान्यता है कि बालक श्रीकृष्ण ने फाल्गुन पूर्णिमा की इसी तिथि को दंभी कंस द्वारा भेजी गई उस राक्षसी पूतना का वध किया था, जो उन्हें मारने आई थी।
By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 11 Mar 2017 03:08 PM (IST)Updated: Sat, 11 Mar 2017 03:21 PM (IST)
होली का त्योहार हमारे उल्लास और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। कृष्ण और शिव के होली खेलने की छवियां इसी दर्शन की अभिव्यक्ति हैं...
घर-घर घूमकर जुटाई लकड़ी से सार्वजनिक स्थल पर होलिकादहन! दूसरे दिन प्रियजनों पर रंग- धार की बौछार और गाल से लेकर चरणों तक अबीर-गुलाल का कोमल संस्पर्श! होली का यह समूचा पर्व संपूर्ण प्रतीकात्मक और प्रेरक है।
समाज के प्रत्येक अंग का योगदान लेकर अहंकार व दर्प जैसी बुराइयों का शमन और पिछली सभी हताशानिराशाओं व रिक्तता-तिक्तताओं को उल्लास के ताजे रंग से रंग डालने का उपक्रम। वस्तुत: यह जीवन के उत्साह और आनंद के नवीकरण की प्रक्रिया है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि भारतीय परंपरा में राधा संग लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ही नहीं, महादेवी संग प्रलय के देवता देवाधिदेव महादेव तक को रंग-धार छोड़ती पिचकारी पकड़े होली के महानायकों के रूप में वर्णित किया गया है।
रंग-महारंग
यह हमारी संस्कृति और परंपरा की सशक्तता का ही परिणाम है कि होली- गीतों की धुन कानों में पड़ते ही आंखों
के सामने द्वापर युगीन मथुरा की छवियां लहराने लगती हैं। काशी में पंडित छन्नू लाल मिश्र जब आलाप लेने लगते हैं, ‘..मसाने में होरी खेलें दिगंबर’ तो अलग ही माहौल बन जाता है। पंडित छन्नू लाल के इस गायन में ‘दिगंबर’ (महादेव शिव) की होली सबसे अलग है। इसमें औघड़नाथ महादेव काशी के महामसान अर्थात् मणिकर्णिका घाट पर भूत-प्रेतों संग ‘होरी’ खेलते हैं! काशी के इस घाट की विशिष्टता यह है कि यहां शव-दाह की निरंतरता कभी नहीं टूटती। शव के स्थान पर यहां आटे का पुतला बनाकर शव-दाह की निरंतरता बनाए रखी जाती है।
इस श्मशान में भगवान शिव की यह रंगों की नहीं, ऐसी ‘होरी’ है, जिसमें वह ‘चिता-भस्म भरी झोरी’ लेकर वहां पहुंचते हैं, जहां होलिका प्रतिदिन-प्रतिक्षण जलती रहती है। इस अवधारणा से होली के रंग-दर्शन को अतिरिक्त विस्तार मिलता है। इसमें दु:ख के प्रत्येक क्षण के अस्वीकार और आनंद के हर क्षण की स्वीकृति का दर्शन है। जीवन और मृत्यु को विशेष ढंग से देखने वाला यह विशिष्ट दृष्टिकोण भिन्न है।
रंगारंग इतिहास
होली के मोहक छींटों से हमारा इतिहास रंगा हुआ है। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों से लेकर सूफी-संत व शायर तक होली के सुरूर में डूबे रहे हैं। जोधाबाई संग सम्राट अकबर और नूरजहां संग जहांगीर के होली खेलने का जिक्र मशहूर है। बादशाह शाहजहां के दौर में होली को ‘ईद-ए- गुलाबी’ और ‘आब-ए-पाशी’ (रंगों की धार) कहा जाने लगा था। जहांगीर के दौर के बने ऐसे चित्र मशहूर हैं, जिनमें उन्हें होली खेलते दिखाया गया है। होली को लेकर लिखे प्रसिद्ध काव्य के रचनाकारों में निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बहादुरशाह जफर और नजीर अकबराबादी के नाम शामिल हैं। अर्थात होली हमेशा से हमारे बहुरंगी समाज में समरसता का त्योहार रही है। आज भी हमें इस परंपरा को मजबूती
देने की पहल करनी चाहिए।
यह रंग, वह रंग
होली की पौराणिक कथाएं जीवन को ऊर्जा और नैतिक-बल से भर देने वाली है। प्राचीन काल के असुर शासक
हिरण्यकशिपु के दर्प का चित्रण आज भी दहला देने वाला है। कहा जाता है, उसने अपनी शक्ति के आगे सबको
अस्वीकार कर दिया था और स्वयं को ही ईश्वर घोषित कर दिया। उसके लिए चुनौती उसके पुत्र प्रह्लाद ने घर
में ही प्रस्तुत कर दी। भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रह्लाद ने अपने पिता के अहंकार को ललकार दिया और विष्णु- आराधना की निरंतरता बाधित नहीं होने दी। हिरण्यकशिपु का दंभ कैसा प्रबल था, इसका पता इसी से चल जाता है कि उसने अपने पुत्र को मारने के कई उपाय कर डाले। अंत में अपनी बहन होलिका का प्रयोग किया, जिसे अग्नि में नहीं जलने का वरदान प्राप्त था। होलिका ने हिरण्यकशिपु के आदेशानुसार प्रह्लाद को गोद में समेटा और धधकती अग्नि में प्रवेश कर गई। उल्टा चक्र चला और अग्नि ने प्रह्लाद को छोड़ होलिका को
भस्म कर दिया। होलिका को अग्निविषयक वरदान वस्तुत: उसके स्वयं के लिए था, इसलिए किसी अन्य के
संग अग्नि-प्रवेश से यह उलट गया।
इस तरह होलिका का जलकर भस्म होना उसके अहंकार और हिरण्यकशिपु के दर्प के विनाश का प्रतीक बना।
दूसरी कथा द्वापर की है। मान्यता है कि बालक श्रीकृष्ण ने फाल्गुन पूर्णिमा की इसी तिथि को दंभी कंस द्वारा भेजी गई उस राक्षसी पूतना का वध किया था, जो उन्हें मारने आई थी। यहां भी कंस दर्प और पूतना का अहंकार विनष्ट हुआ। इस घटना के बाद मुदित ग्वालों ने गोपियों के संग रासलीला रचाई और रंग खेला जो बाद में प्रत्येक वर्ष उत्सव के रूप में मनाई जाने लगी। मनु-स्मृति के अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा को ही सृष्टि के प्रथम पुरुष मनु की जन्मतिथि है, इसलिए यह होली के रूप में मनाए जाने की परंपरा बनी।
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