श्राद्ध एवं तर्पण की परंपरा हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है
तर्पण से प्राप्त होता संतोष श्राद्ध एवं तर्पण की परंपरा हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। विज्ञान जो भी कहता हो, लेकिन हमें अपने शास्त्रों के अनुसार पूर्ण सेवाभाव से तर्पण करना चाहिए। अपने पूर्वजों के सम्मान से निश्चित ही परिवार को संतोष प्राप्त होता है। इसके साथ ही श्राद्ध
तर्पण से प्राप्त होता संतोष श्राद्ध एवं तर्पण की परंपरा हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। विज्ञान जो भी कहता हो, लेकिन हमें अपने शास्त्रों के अनुसार पूर्ण सेवाभाव से तर्पण करना चाहिए। अपने पूर्वजों के सम्मान से निश्चित ही परिवार को संतोष प्राप्त होता है। इसके साथ ही श्राद्ध पक्ष में भी सभी लोग एकत्रित होकर तर्पण करते हैं। पितरों से जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा मांगते हैं। पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।
'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद