क्रियायोग: अधिक विकसित होगी नई पीढ़ी
जिस प्रकार संपूर्ण जीवन का विकास ऊर्ध्वगामी स्वरूप में होता है उसी प्रकार मनुष्यों का विकास भी प्रारंभिक मानवीय प्रतिभाओं से आरंभ होकर विकास की उच्चतर अवस्थाओं तक होता है। आइए पढ़ते हैं कैसे यह नई पीढ़ी अधिक विकसित होगी।
नई दिल्ली, स्वामी चिदानन्द गिरि (योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया, सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप के अध्यक्ष); सभी मनुष्य वस्तुतः आत्माएं ही हैं। आपके लिए मात्र जन्म के आधार पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं है। जिन्हें हम 'नौजवान व्यक्ति' कहते हैं, वे पुरानी आत्माएं हैं और वे प्रत्येक मनुष्य में अंतर्जात कामनाओं-सुख, सुरक्षा, प्रेम इत्यादि कामनाओं को पूर्ण करने के लिए हर प्रकार के प्रयासों और आकांक्षाओं से गुजर चुकी हैं। उन्होंने उस (पूर्ति) को प्राप्त करने के प्रयास में अनेक जन्म व्यतीत किए हैं और अंतत: वे यहां आए हैं तथा जिन लोगों ने जन्म लिया है, उनमें से लाखों लोग अपने पूर्वजन्मों से विकास के उस चरण में हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण इस विषय पर प्रकाश डालते हैं।
वे अर्जुन से कहते हैं, 'यदि अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किए बिना तुम्हारे इस जीवन का अंत हो जाता है तो चिंता मत करो, क्योंकि योग-ध्यान का कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं होता है।' तत्पश्चात उस भक्त का एक ऐसे वातावरण में पुनर्जन्म होता है, जहां वह पुनः अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करता है। इसलिए जिन्हें आप 'नौजवान व्यक्ति' कह रहे हैं, वे ज्ञानीजन हैं। वे संभवत: ऐसे युद्धरत आत्माएं हैं, जो हर प्रकार के अनुभव से गुजर चुके हैं और जिनकी चेतना इस प्रकार की है कि उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में हर तरह के कार्य किए हैं। वे पुनः लौटकर आते हैं और कहते हैं, 'अब मैं अपना और अधिक समय व्यर्थ नहीं गवाऊंगा। मैं अपने और अधिक जन्मों को व्यर्थ नहीं गवाऊंगा। मैं वह कार्य करूंगा, जो वास्तव में मेरे आत्मा की क्षमताओं और मेरे आत्मा में विद्यमान उस दिव्य संपर्क की तृष्णा की पूर्ति करेगा।'
जिस प्रकार संपूर्ण जीवन का विकास ऊर्ध्वगामी स्वरूप में होता है, उसी प्रकार मनुष्यों का विकास भी प्रारंभिक मानवीय प्रतिभाओं से आरंभ होकर विकास की उच्चतर अवस्थाओं तक होता है।
उनकी क्षमता एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में निरंतर और अधिकाधिक विकसित होती रहती है। संपूर्ण मानव जाति विकास एवं प्रतिविकास के चक्रों से गुजरती रहती है, जिन्हें शास्त्रों में युगों के नाम से संबोधित किया जाता है। उनका आरोहण और अवरोहण होता रहता है।
इस समय हम एक ऐसे युग में हैं, जो आरोहण की अवस्था में है। दूसरे शब्दों में, वर्तमान काल में जन्म लेने वाले आत्माएं अपने दादा-दादी और परदादा-परदादी की अपेक्षा विकास की उच्चतर अवस्था में हैं।… आज के बच्चों को देखें, उनके अंदर स्वाभाविक रूप से यह भावना है…, 'नहीं, केवल किसी की त्वचा के रंग के कारण मेरे हृदय में उनके प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होगी,' और इन बच्चों के हृदयों में एक अन्य प्रकार की मानवीय अज्ञानता के प्रति एक स्वाभाविक अस्वीकृति है, जिसमें संपूर्ण विश्व के सभी देशों में पुरानी पीढ़ियां दृढ़तापूर्वक विश्वास करती थीं। यह लगभग ऐसा है कि जैसे वे पहले से ही थोड़ी-बहुत तैयारी करके आते हैं। जैसे ही उनको (श्रीश्री परमहंस योगानन्द द्वारा प्रदत्त) ध्यान के इस सिद्धांत का, सर्वजनीन आध्यात्मिक सिद्धांतों पर आधारित इस मार्ग का परिचय प्राप्त होता है (जिसका 'मेरा धर्म और आपका धर्म' से कोई सरोकार नहीं है, जो एक सार्वभौमिक मार्ग है, जो मानवीय परिवार को विभाजित करने के स्थान पर संगठित करता है), तो यह उन्हें पूर्ण रूप से तर्कसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि अपने विकास की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ते हुए वे ठीक उसी स्थान पर हैं।
मेरे विचार से, जब आपकी आयु मेरी वर्तमान आयु के बराबर होगी, तो संभवतः आप और भी बहुत अधिक विकास को देखेंगे। तब आप पीछे मुड़कर देखेंगे और कहेंगे, 'ओह, उन पिछली पीढ़ियों के लोग ऐसे कैसे हो सकते थे?'