संत रविदास को विश्वास था कि अंतर्मन की पवित्रता ही है सच्ची ईश्वर भक्ति
संत रविदास कहते हैं कि अंतर्मन की पवित्रता ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। इसके लिए व्यक्ति धार्मिक कर्मकांड की बजाय विनम्र होकर निरंतर कर्म करता रहे।
श्रीप्रकाश शुक्ल बीएचयू के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व कवि हैं। इन्होंने रविदास की रचनाओं पर वृहद शोध किया है। यहां उन्होंने रविदास के विचारों के बारे में बताया है। कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक ह्वै चुनि खावै। इन विचारों का आशय यह है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि छोटे शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। ये विचार संत रविदास के हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को खत्म किया तथा व्यक्ति को धार्मिक कर्मकांड करने की बजाय कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित किया।
लोक वाणी के लेखक
रविदास लोकवाणी में लिखते थे, इसलिए जनमानस पर उनके लेखन का सहज प्रभाव पड़ता था। उनकी रचनाओं में हमेशा मानवीय एकता व समानता पर बल दिया जाता था। वे मानते थे कि जब तक हमारा अंतर्मन पवित्र नहीं होगा, तब तक हमें ईश्वर का सानिध्य नहीं मिल सकता है। दूसरी ओर, यदि हमारा ध्यान कहीं और लगा रहेगा, तो हमारा मुख्य कर्म भी बाधित होगा तथा हमें कभी-भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो बातें उन्होंने स्वयं पर आजमाई, उन्हें ही रचनाओं के माध्यम से आम जन को बताया। उनके जीवन की एक घटना से पता चलता है कि वे गंगा स्नान की बजाय खुद के कार्य को संपन्न करने को प्राथमिकता देते हैं।
श्रम ही है साधन
संत रविदास ने कहा कि लगातार कर्म पथ पर बढ़ते रहने पर ही सामान्य मनुष्य को मोक्ष की राह दिखाई दे सकती है। अपने पदों व साखियों में वे किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए श्रम को ही मुख्य आधार बताते हैं। इसलिए वे मध्यकाल में भी अपनी बातों से आधुनिक कवि समान प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं, 'जिह्वा सों ओंकार जप हत्थन सों करि कार /राम मिलहिं घर आइ कर कहि रविदास विचार।' एक पद में नाम की महत्ता को बताते हुए राम नाम के जप पर जोर देते हैं, जिससे सगुण ब्रह्म की शक्तिशाली सत्ता का मोह टूट जाता है और शासन की जगह समानता का नारा बुलंद होता है। अपने समय के नानक, कबीर, सधना व सेन जैसे संत कवियों की तरह रविदास भी इस बात को समझते हैं कि सगुण अवतार जहां शासन व्यवस्था को जन्म देता है, वहीं निर्गुण राम समानता के मूल्य के साथ खड़े होते हैं, जो अपनी चेतना में एक आधुनिक मानस को निर्मित करते हैं। 'नामु तेरो आरती भजनु मुरारे / हरि के नाम बिनु झूठै सगल पसारे ..' जैसे पद के आधार पर रविदास अपने समय की शक्तिशाली प्रभुता को उसके अहंकार का बोध कराते हैं तथा समान दृष्टि रखने वाले लोगों का आह्वान करते हैं, जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाता है।
समान अवसर का सर्मथन
बनारस के दक्षिणी छोर पर स्थित सीरगोवर्धन में छह शताब्दी पहले पैदा हुए संत रविदास। इनके 40 पद 'गुरुग्रंथ साहब' में न सिर्फ शामिल किए गए, बल्कि लोक जीवन में खूब प्रसिद्ध भी हुए। रविदास के साथ जातिगत भेदभाव खूब हुआ था, जिसका दर्द उनकी रचनाओं और उनके इर्द-गिर्द बुनी गई कथाओं में भी देखा जा सकता है। उनकी विद्वता को बड़े-बड़े विद्वान भी स्वीकार कर उन्हें दंडवत करते हैं। यह उनके पदों व साखियों में देखा जा सकता है। 'अब विप्र परधान करहि दंडवति /तरे नाम सरनाई दासा' जैसे पद इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि असमानता, अहंकार और अवसाद की स्थितियों से गुजरते हुए रविदास अपने समय में एक ऐसे बेगमपुर (बेगमपुरा सहर को नाऊं, दुख अन्दोख नहीं तिहि ठाऊं) की परिकल्पना करते हैं, जहां किसी को कोई दुख न हो और सभी समान हों। समान ही नहीं, सभी को समान अवसर भी मिले।
पाखंड से लड़ाई
कह सकते हैं कि रविदास ने समानता और समरसता के आधार पर जो रचनाएं दीं, वे ही एक नई सामाजिकता का गठन कर रही थीं। इसमें जड़ता, अंधविश्वास, अंधभक्ति के कई मूल्य ध्वस्त हुए और फिर इन सभी विकारों से रहित एक स्वस्थ समाज सामने आया। जात-पांत व भेदभाव रहित समाज ही स्व विवेक के बल पर सही निर्णय ले सकता है। रविदास भक्ति आंदोलन के एक ऐसे संत हैं, जो जीवन भर श्रम की महत्ता पर जोर देते रहे। इनकी सर्वाधिक ऊर्जा अपने समय के पाखंड से लड़ने में खर्च हुई, क्योंकि उन्हें पता था कि इसके बगैर समता, समानता व सहअस्तित्व की भावना को अर्जित नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, व्यक्ति को धार्मिक पाखंड करने की बजाय अंतर्मन की पवित्रता पर जोर देना चाहिए। महात्मा गांधी अपने धर्म का पालन करते थे, लेकिन वे कर्मकांड करने की बजाय आत्मा की शुद्धता पर अधिक जोर देते थे। संत रविदास की तरह गांधी कर्म व श्रम की महत्ता पर जोर देते थे। आधुनिक काल में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान को ही भगवान का रूप समझा। माघ पूर्णिमा के अवसर पर हर वर्ष बनारस के सीर गोवर्धन में संत रविदास कीस्मृति में आयोजन होता है, जिसमें पंजाब व हरियाणा से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं।
लेखक: श्रीप्रकाश शुक्ल