माघ मास में कल्पवास करना बेहद पुण्यकारक व लाभदायक है क्योंकि...
माघ मास में पृथ्वी पर आठ हजार त्वष्टा नाम की आठ हजार रश्मियां ऊर्जादायक होती जो शरीर को शीत के प्रकोप से बचाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
पौष पूर्णिमा स्नान के साथ माघ मेले का गुरुवार को शुभारंभ हो गया। पौष पूर्णिमा बुधवार शाम 7.20 बजे ही लग गई थी लेकिन उदयातिथिकी वजह से स्नान दान का क्रम तड़के चार बजे शुरू हुआ। इलाहाबाद में स्नान के लिए कुल 17 घाट बनाए गए हैं। सुबह आठ बजे तक करीब चार लाख श्रद्धालुओं के स्नान का अनुमान है। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा है, स्नानार्थी मेले में पहुंच रहे हैं। तकरीबन डेढ़ महीने तक चलने वाले इस माघ मेले में देश- विदेश से तकरीबन चार करोड़ श्रद्धालु आएंगे।
मेले में कई शंकराचार्यों समेत तमाम साधु- संत और तकरीबन पांच लाख श्रद्धालु यहाँ एक महीने तक रूककर कल्पवास करेंगे। मेले के लिए गंगा की रेती पर तंबुओं का पूरा एक अलग शहर बसाया जाता है, जिसमे अस्थाई सड़कें, पुल व दुकाने बनाई जाती हैं।
हमारे भीतर की उमंग ही हमें जीवनी-शक्ति प्रदान करती है, जिससे हम बड़े-बड़े काम कर जाते हैं। लोहड़ी (13 जनवरी) उत्साह और उमंग को पुनर्जीवित करने का पर्व है। इधर इलाहाबाद में आज 12 जनवरी से शुरू हो रहा माघ मेला जो महाशिवरात्रि तक चलेगा। इसमें पौष पूर्णिमा,मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के स्नान पर्व होते हैं।
माघ मास में कल्पवास
मानव जाति के मानसिक और शारीरिक उत्थान के लिए पर्वो का विधान है। पवित्र महीनों के स्नानों को भी शास्त्र ने बताया है। इन्हीं में से एक है पवित्र माघ स्नान जो मानव शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाता है और रोगाणुओं को नष्ट करता है। माघ मास में कल्प वास करना बहुत पुण्यकारक और लाभदायक बताया गया है।कवि कालीदास ने लिखा है कि उत्सव प्रिय मानव: यानि मानव उत्सव प्रिय है। उत्सव मनाने चाहिए फिर वे चाहे किसी भी प्रकार हों। किसी भी उत्सव को मनाने के पीछे उद्देश्य यही होता है कि मानव का स्वास्थ्य अच्छा हो।
माघ मास में पृथ्वी पर आठ हजार त्वष्टा नाम की आठ हजार रश्मियां ऊर्जादायक होती हैं। जो शरीर को शीत के प्रकोप से बचाने और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए होती है। शास्त्रों में माघ मास में कल्प वास का प्रावधान है। जिसे विधि विधान से करने से मानव शरीर स्वस्थ्य होता है और धन संपदा की प्राप्ति उसे सहज ही हो जाती है। कल्पवास की शुरुआत त्रेता युग से हुई थी। जिस प्रकार से कल्प वृक्ष के दर्शन शुभ माने जाते हैं उसी प्रकार से शरीर का कायाकल्प भी अति शुभ माना जाता है।
माघ मास में आठ हजार रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं जो शरीर को ऊर्जावान बनाने में सहायक होती हैं। कल्प वास के तहत झोंपड़ी में रहकर पृथ्वी पर शयन किया जाता है। इसके अलावा भौतिक सुखों से भी अपने के दूर रखा जाता है। साथ ही प्रात: स्नान करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और गंगा किनारे से बालू लेकर घर जाना चाहिए।
लोहड़ी पर्व
पूस (पौष) महीने की अंतिम रात यानी मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर मनाया जाने वाला यह लोक-पर्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस पर्व की जड़ें पंजाब की प्राचीन कृषि-संस्कृति के भीतर हैं। संभवत: सप्त सिंधु कहलाने वाले पुरातन पंजाब के निवासियों ने इसे शुरू किया होगा। कुछ लोग कहते हैं कि अपनी नई फसल की प्रसन्नता मनाने और नए अन्न को अग्निदेव को अर्पित करने की रीत डाली गई होगी। जो भी हो, तब और अब में एक चीज समान है और वह है खुशी, उत्साह व उमंग। कहा जाता है कि तिल और रोड़ी मिलकर 'तिलौड़ी' बना जो बाद में भाषा के बहाव में बहता हुआ 'लोहड़ी' बन गया। लोहड़ी पर्व को सती (शिव की पत्नी) के आत्मदाह से भी जोड़ा जाता है। मान्यता के अनुसार, पिता दक्ष द्वारा करवाए जा रहे यज्ञ में पति शिव को आमंत्रित न करने से अपमानित व आहत होकर सती ने यज्ञाग्नि में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। क्रुद्ध शिव ने दक्ष प्रजापति का सिर काट कर अग्नि को भेंट कर दिया। देवताओं की अनुनय-विनय से दक्ष को नवजीवन मिला और इसी दिन से यज्ञ में पूर्णाहुति डाली गई। मध्यकाल में दुल्ला भतर््ी का प्रसंग लोहड़ी से जुड़ गया। उसके परोपकारी कार्यो की अनेक कहानियां पंजाब में प्रचलित हैं। कहते हैं कि एक गरीब की दो सुंदर बेटियां थी-सुंदरी और मुंदरी। इसकी सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन एक दिन उस इलाके के हाकिम की कुदृष्टि उन बहनों पर पड़ गई। दुखी पिता की फरियाद दुल्ला भतर््ी तक पहुंची। दुल्ले ने सुंदरी-मुंदरी को शरण में ले उनकी शादी संपन्न करवाई। तब से इस पर्व पर इस घटना को गा-गा कर याद किया जाता है-
सुंदर मुंदरिए, हो। तेरा कौण विचारा, हो। दुल्ला भतर््ी वाला, हो।दुल्ले दी धी विहाई, हो।
लोहड़ी वस्तुत: खुशियां मनाने का पर्व है। जिस घर में संतान जन्मी हो या शादी हुई हो, वे लोहड़ी बांटते हैं। मूंगफलियां, रेवडिय़ां, मक्के के भुने दाने, तिल, गुड़ आदि सामग्री को मिलाकर बांटने को ही लोहड़ी बांटना कहा जाता है। घर के दरवाजे के आगे या खुले मैदान में लोहड़ी जलाई जाती है। उपले, लकडिय़ां आदि इकटठे कर आग जलाई जाती है। सभी लोग सामूहिक रूप से आग के इर्द-गिर्द बैठकर अग्नि को तिल-मूंगफली, रेवड़ी और मक्की के दाने आदि भेंट करते हैं। कुल मिलाकर, यह पर्व हमारे भीतर उमंग और उत्साह जगाने का काम करता है।