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संत-स्मृति: 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत', पढ़िए कबीर जयंती पर विशेष

संत कबीर दास को समाज में नवचेतना के आधार माना जाता है। कबीर दास जी ने कई ऐसी बातें बताई थीं जिन्हें समाज में ज्ञान के रूप में ग्रहण किया जाता है। कबीर के दोहे इस बात का प्रमुख उदाहरण है।

By Shantanoo MishraEdited By: Shantanoo MishraPublished: Sun, 28 May 2023 03:29 PM (IST)Updated: Sun, 28 May 2023 03:29 PM (IST)
संत-स्मृति: 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत', पढ़िए कबीर जयंती पर विशेष
कबीर जयंती पर पढ़िए आचार्य विवेकदास जी के कुछ विचार।

नई दिल्ली, आचार्य विवेकदास (प्रमुख, कबीरचौरा मठ मूलगादी, वाराणसी); संत कबीर (जन्मजयंती- चार जून ) आध्यात्मिक चेतना के शिखर संत हैं। उनकी आध्यात्मिकता ही कबीर वाणी का दर्शन है। इनमें उन्होंने मन, माया, मोह, मृत्यु और मोक्ष के संबंध में सविस्तार चर्चा की है। सहज, सरल विश्लेषण भी प्रस्तुत किया है। माया को कबीर साहब महाठगिनी बताते हैं तो मोह को संसार का बंधन बताते हुए कहते हैं-मोह गए बिना जीव संसार से मोक्ष नहीं पा सकता।

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मन को कबीर साहब ने चंचल और चोर बताया है। कहा है, मन-मन करते सुर-नर-मुनि सब नष्ट हो गए। आदमी के घर में एक दरवाजा होता है तो बार-बार खोलता-बंद करता है। मन के अंदर लाखों दरवाजे हैं, उन लाखों दरवाजों को बंद करने के लिए मन की कितनी साधना करनी पड़ती है। मन के भीतर तृष्णा बैठी है। तृष्णा मन की सगी बहन है। एक पल में सातों समुद्र लांघ जाती है। पलक झपकते सातों समुद्र का पानी एक घूंट में पी जाती है। कबीर मन के इन लाखों दरवाजों को बंद करने की सहज युक्ति बताते हुए कहते हैं, 'गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान। जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।। आशय यह कि संतोष धन से मन को नियंत्रित किया जा सकता है। कबीर साहब के इस अध्यात्म भाव से तृष्णा पर रोक लगा सकते हैं।

संत कबीर मन की निर्मलता की बात भी जोर-शोर से उठाते हैं। उनकी विख्यात साखी-'यह मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर, पीछे-पीछे हरी फिरे कहत कबीर-कबीर' कबीर दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से मन को इतना निर्मल बना लिया था कि ईश्वर ही उनके पीछे-पीछे फिर रहे थे। इसे कबीर स्पष्ट रूप से बताते हैं-'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।'

मोक्ष आध्यात्मिक चेतना की महत्वपूर्ण कड़ी है। संत कबीर आत्मवादी संत थे। आत्मा को जान लेना, उसकी अनुभूति प्राप्त कर लेना ही मोक्ष की पराकाष्ठा है। आत्मा सब घट में विराजमान है। कण-कण में है। इसे कबीर साहब स्पष्ट करते हैं -'सब घट मेरो साइयां, सूनी सेज ना कोए।' इसी आत्म तत्व को कबीर साहब ने सुमिरन और भजन के लिए राम का नाम कहा है। यही आत्मा-दर्शन है। आत्मा-आत्मा जपा नहीं जा सकता। जप-सुमिरन के लिए भारतीय दर्शन में दो ही नाम हैं, ओम और राम। दोनों ही नाभि से उच्चरित होते हैं। वही नाम अनहद नाद होता है। अनहद नाद की ध्वनि है, जो कबीर वाणी का अहम पक्ष है। साधना के क्षेत्र में इसकी बहुत चर्चा होती है। इसे कबीर साहब से लेकर विभिन्न संतों और साधकों ने अपनी साधना में शामिल किया।

कबीर जन पक्षधरता के संत थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना इसी से जुड़ी है। वह जब वंचितों, दलितों, निरीहजनों में आध्यात्मिक चेतना के प्रसार का यत्न कर रहे थे तो उन लोगों के मन में सवाल थे कि वे तो शास्त्र जानते ही नहीं, पढ़े-लिखे ही नहीं, फिर घट में स्थित आत्म तत्व को कैसे जान-समझ पाएंगे। तब कबीर ने उन लोगों को उनके श्रम के उदाहरण से ही आत्म तत्व को लखाने और बताने का मनोवैज्ञानिक रास्ता सुझाया। किसानों से कहा, आप गाय पालते हो। गाय में दूध और मक्खन नहीं दिखता, फिर भी 12 वर्ष तक गाय पाल कर दूध व मक्खन का उत्पादन करते हैं। वैसे ही साधना करके गुरु की युक्ति से घट के भीतर अवस्थित आत्म तत्व की अनुभूति कर सकेंगे। इसी तरह किसानों से कहा, खेतों में नीले-पीले सरसो और तिल के फूल खिल रहते हैं। तेल नहीं दिखता फिर भी आप तेल प्राप्त करते हैं। कबीर कहते हैं- 'जौं तिल माही तेल है, त्यों चकमक में आग।' वहीं भटके हुए लोगों को संत कबीर की साखी-'कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़त बन माहिं। ज्यो ज्यो घट-घट राम है, दुनिया देखें नाहिं।' राह दिखाती है। आध्यात्मिक चेतना जगाती है। बताती है, आत्म तत्व मनुष्य के भीतर ही है, भला बाहर ढूंढ़ने से कैसे और कहां मिलेगा।


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