होली: सतरंगी समरसता का पर्व
होलिका दहन हमारे भीतर के अहंकार और अन्य बुराइयों को अग्नि में विसर्जित कर देने का प्रतीक है। अहंकार जाने के बाद ही हमारे भीतर प्रेम का उदय होता है और समाज में सतरंगी समरसता आती है व एकता मजबूत होती है। होली मित्रता- और एकता का पर्व है। इस दिन शत्रुता और द्वेषभाव भूलकर सबस्
होलिका दहन हमारे भीतर के अहंकार और अन्य बुराइयों को अग्नि में विसर्जित कर देने का प्रतीक है। अहंकार जाने के बाद ही हमारे भीतर प्रेम का उदय होता है और समाज में सतरंगी समरसता आती है व एकता मजबूत होती है।
होली मित्रता-
और एकता का पर्व है। इस दिन शत्रुता और द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम से मिलना चाहिए। होली के आनंद को हमें सबमें बांटना चाहिए
होलिका-दहन का मुहूर्त-
शास्त्रों का कहना है कि होलिका-दहन 'भद्रा' के विष से मुक्त निर्मल पूर्णिमा को सूर्यास्त के उपरांत इसी तिथि की अवधि में करना चाहिए। दृश्यगणित के अनुसार, आगामी रविवार 16 मार्च को फाल्गुनी पूर्णिमा सूर्योदय से रात्रि 10.38 बजे तक रहेगी।
होलिका दहन में वर्जित 'भद्रा' प्रात: 9.58 बजे तक रहेगी। अत: सूर्यास्त के उपरांत भद्रा का कोई दोष नहीं रहेगा। अतएव रविवार, 16 मार्च को स्थानीय सूर्यास्त से रात्रि 10.38 बजे के मध्य फाल्गुनी पूर्णिमा की अवधि में होलिका-दहन सुविधानुसार कभी भी किया जा सकता है।
संत ऋतु आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन दिखने लगता है। फूलों पर भंवरे मंडराने लगते हैं। वृक्षों पर नए फूल-पत्ते आने शुरू हो जाते हैं। वातावरण में मादकता का अनुभव होने लगता है। ऋतुराज वसंत के आने पर प्रकृति में एक नई रौनक तथा प्राणियों में उत्साह और उमंग की लहर दिखाई देने लगती है। होली के पर्व में वसंतोत्सव की रंगत ही देखने को मिलती है। नर-नारी होली के रंगों में एक-दूसरे को रंगकर एक अद्भुत आनंद का अनुभव करते हैं। आनंद के इस उत्सव को प्राचीनकाल में रति-काम महोत्सव कहा जाता था।
मान्यता है कि होली के त्योहार को आध्यात्मिक पृष्ठभूमि सतयुग में प्रच्चद के समय मिली। एक कथा के अनुसार, दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रच्चद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। इससे उनके पिता उनसे सदैव अप्रसन्न रहते थे। हिरण्यकशिपु ने अनेक तरह से प्रच्चद को भक्ति मार्ग से विमुख करने की चेष्टा की, पर भक्तराज प्रच्चद अपने पथ से नहीं डिगे। अंत में कुपित होकर हिरण्यकशिपु ने प्रच्चद को मृत्युदंड दे दिया, पर अनेक उपाय करने पर भी प्रच्चद को मारा न जा सका था। तब हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका ने इस संदर्भ में अपने भाई की मदद करने की सोची। होलिका के पास एक दिव्य वस्त्र था, जिसे ओढ़कर अग्नि में बैठने पर भी आग का असर नहीं होता था। होलिका प्रच्चद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठ गई, पर उसमें आग लगाए जाने पर होलिका का वस्त्र हवा से उड़कर प्रच्चद पर आ गया। दिव्य वस्त्र से ढक जाने पर प्रच्चद सुरक्षित बच गया और होलिका भस्म हो गई। यह घटना फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन घटी थी। अतएव फाल्गुनी पूर्णिमा में होलिका-दहन की परंपरा बन गई। मान्यता है कि होलिका के भस्म हो जाने पर दूसरे दिन भक्तजनों ने आनंदोत्सव मनाया था। अत: चैत्रमास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा (परीवा) के दिन यह उत्सव लोग बड़े उल्लास के साथ मनाते हैं।
होलिका दहन के इस प्रसंग को लोग प्रतीकात्मक रूप में मनाते हैं। यह अधर्म पर धर्म की विजय का ही पर्व है। इसमें हम अपने अहंकार और अन्य बुराइयों को भस्म करते हैं और अच्छाइयों की विजय का उल्लास मनाते हैं। होलिका दहन से यह आध्यात्मिक संदेश मिलता है कि ईश्वर सत्य है। जो अच्छाइयों की राह पर चलता है, उसे स्वत: ईश्वरीय सुरक्षा प्राप्त होती है। भक्तराज प्रच्चद से हमें ईश्वर में आस्था रखकर अपने कर्म पर अटल रहने की प्रेरणा मिलती है।
होली कृषि और धार्मिक मान्यताओं से भी जुड़ा हुआ है। होली के त्योहार के आस-पास गेहूं, जौ और चने की फसल तैयार हो जाती है, किंतु प्राचीन परंपरा के अनुसार, किसान उसे बेचने या उपयोग में लाने से पूर्व यज्ञ की अग्नि के माध्यम से देवताओं को उनका भाग सबसे पहले देना चाहता है। कृषक और गृहस्थ होलिका की अग्नि में नवान्न का कुछ भाग समर्पित करके ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस प्रकार होली एक यज्ञ बन जाती है। प्राचीन समय में वैदिक सोमयज्ञ का अनुष्ठान फाल्गुन मास में होता था। होलिका दहन इसी वैदिक यज्ञ का सामाजिक प्रतिरूप है। होली में जलाए जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का प्रतीक है।
वर्तमान समय में लकडि़यों तथा उपलों-कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिका-पूजन किया जाता है, फिर उसमें आग लगा दी जाती है। श्रद्धालु नई फसल की गेहूं की बालियां तथा गन्ना आदि उस अग्नि में चढ़ाकर, एक तरह से हवन कर लेते हैं। हरे चने को आग में भून लेने पर वह 'होला' प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। होलिका जल जाने के उपरांत उसकी विभूति को यज्ञ-भस्म मानकर, उससे तिलक किया जाता है।
होलिकोत्सव आध्यात्मिक पर्व होने के साथ-साथ सामाजिक त्योहार भी है। इसमें वर्ण अथवा जातिभेद का कोई स्थान नहीं है। इसे समाज के सभी वर्ग मिल-जुलकर एकसाथ मनाते हैं। सही मायनों में होली सबका त्योहार है, जिसमें हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद तथा आनंद-उल्लास सभी कुछ है। इस त्योहार से सामाजिक समरसता की भावना प्रसारित होती है। इससे राष्ट्रीय एकता को भी बल मिलता है।
यह भी देखा जाता है कि लोग होली के रंग में रंगकर शत्रुता त्याग देते हैं और वर्षो पुराने दुश्मन दोस्त बन जाते हैं। होलिका की अग्नि में शत्रुता का भाव भस्म हो जाता है और नफरत खत्म हो जाती है। होली का आनंद मन को प्रेम के रंग में डुबो देता है और मित्रता की इच्छा को जाग्रत कर देता है। वस्तुत: होली मित्रता और एकता का पर्व है। इस दिन द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम से मिलना चाहिए। तभी इस त्योहार को मनाना सार्थक सिद्ध होगा। होली के आनंद को सब में बांटना चाहिए।