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राम नाम का अमृत, पढ़िए स्वामी मैथिलीशरण के अनमोल विचार

भगवान को स्मरण करना हनमान जी का सहज स्वभाव है। वे रामामृत को पीते हैं जिसमें कभी तृप्ति संभव नहीं है। जो पूर्ण को प्राप्त करके भी बार-बार उसी को प्राप्त करना चाहता है वस्तुत वह पूर्ण भक्ति है जिसका दर्शन हनुमान जी के जीवन में पग-पग पर होता है।

By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraPublished: Sun, 21 May 2023 06:51 PM (IST)Updated: Sun, 21 May 2023 06:51 PM (IST)
राम नाम का अमृत, पढ़िए स्वामी मैथिलीशरण के अनमोल विचार
पढ़िए राम भक्ति में क्या रस है और हनुमान जी सबसे बड़े रामभक्त क्यों कहलाते हैं?

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण (अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन); विकल्प और विस्तार से निर्विकल्प और सूक्ष्म में स्थिति हुए बिना परम तत्व की उपलब्धि संभव नहीं है। एक शब्द में या एक अक्षर में जो सत्य और तत्व है, पुराणों और वेदों में उसी का विस्तार है। वह अक्षर है, वह ॐ है, राम है, कृष्ण है। चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरं एकैकमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम्। उसी एक का विस्तार सृष्टि है। उसी एक का विस्तार दृष्टि और दृष्टिकोण है। संतों की वाणी भी उसी एक का विस्तार है और कुछ है ही नहीं! पीपल के वृक्ष के मूल को देखो तो दृढ़ता दिखेगी, उसी के पत्तों में चंचलता मिलेगी। ये जो पत्तों की चंचलता है, संसार के संदर्भ में संगति और माया का प्रभाव तो हवा के रूप में होता ही है और वह हमारे मन के कोमल पत्तों को विचलित किए बिना नहीं छोड़ेगा, जिसको कोई भी हिला दे, वही होता है मन। बस, इसी को भगवान में लगा दिया जाए अर्थात अपने मूल में स्थिति हो जाएं तो तना कभी नहीं हिल सकता है। अपने अधिष्ठान से जुड़ जाना ही योग है। हनुमानजी, काकभुशुंडि जी, शंकर जी और पार्वती जी के साथ गणेश जी ने इसी मूल को पकड़ लिया और परम सिद्ध होकर सिद्धियों का जो परम तत्व राम नाम है, उसी में आरूढ़ हो गये। सब लोग और सारी दुनिया विस्तार के पत्तों की तरह हिल रही है, झूम रही है, डोल रही है, पर यदि पीपल के मूल को देखें तो उस पर अनुकूल और प्रतिकूल हवाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह अपनी ही सृष्टि को देखता रहता है। मूल को हम निष्ठा या निष्ठावान कहते हैं। हनुमान जी उस निष्ठा के प्रतीक हैं, जो भगवान राम की लीलाओं के विस्तार और सृष्टि के मूल में श्रीसीता जी की शक्ति को देखकर अपने कर्तृत्व को भूले रहते हैं और भगवान को स्मरण करते रहना उनका सहज स्वभाव है। वे उस नामामृत को पीते रहते हैं, जिसमें कभी तृप्ति संभव नहीं है। पूर्णानंद, अखंडानंद, आत्मानंद, परमानंद और वह है राम नाम का रामामृत, जिसने मूल अमृत को ही पी लिया। अब वह और क्या पिएगा? जो पूर्ण को प्राप्त करके भी बार-बार उसी को प्राप्त करना चाहता है, वस्तुत: वही पूर्ण ज्ञान है और पूर्ण भक्ति है, जिसका दर्शन हनुमान जी के जीवन में पग-पग पर होता है :

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ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं,

श्रीमच्चछम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा,

संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं,

धन्यास्ते कृतिन: पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्।।

तो यह सिद्ध है कि वेद का सार और सृष्टि का सार राम नाम है। हनुमान जी उसी राम नाम को सतत् जपते रहते हैं :

सुमिरि पवनसुत पावन नामू

अपने बस करि राखे रामू।

महामंत्र जेहि जपत महेसू

कासी मुकुति हेतु उपदेसू।।

भगवान के दो अक्षरों वाले राम नाम के प्रभाव से भरे पड़े हैं पुराण और वेद, पर धन्य हैं शंकर जी और हनुमान जी, जो केवल नाम निष्ठा के बल पर सगुण राम को हनुमान बनकर अपने वश में कर लेते हैं और शिव रूप मे केवल निर्गुण मंत्र का उच्चारण करके काशी में मुक्तिदाता होने का त्रैलोक में यश प्राप्त कर लेते हैं तथा स्वयं कभी शिव से अशिव नहीं होते हैं। हनुमान जी इसी राम नाम के प्रभाव से समुद्र लांघ गये। इसी नाम मंत्र की कथा सुनाकर विभीषण में शरणागति का आत्मविश्वास दे आये। इसी राम नाम की मुद्रिका को देकर सीता जी को संतोष, विश्वास और भरोसा दे आये और इसी राम नाम के प्रभाव से लंका को भस्म करके स्वयं सुरक्षित लौट आये। तात्पर्य मात्र यह है कि बस मूल को पकड़ना आना चाहिए। पीपल के पत्ते तो मन की तरह हैं, हम लोगों की स्थिति कहीं स्थित न होने के कारण हम सदा विचलित रहते हैं। जरा सा किसी ने झूठी प्रशंसा कर दी तब भी हिलने लगेंगे और सच्ची निंदा कर दी तब भी हिलने लगेंगे। संसार में झूठ और सत्य की परिभाषा केवल हमारे राग और द्वेष पर आश्रित है। हनुमान जी और विभीषण, अपने लिए एक ही मंत्र का उपयोग करते हैं। स्वयं भी उसी राम नाम का जप करते हैं और दोनों ने रावण को भी उसी का सेवन करने का उपदेश दिया। यही नाम निष्ठा का सच्चा स्वरूप है, जिसमें अपने विरोधी के प्रति भी अहित भावना का अभाव हो। उस साधक के जीवन में क्षमा, कृपा, समता के मापदंड सबके लिए अलग न होकर बिल्कुल समान हैं। यह जो महानतम् विवेक है, इसी के कारण हनुमान जी का शौर्य और धैर्य, सत्य और शील, सबमें एकरसता और स्थिरता बनी रहती है। उसका मात्र कारण है कि वे अपने मूलाधार में स्थित रहते हैं। हमें अपने जीवन में पहले पवित्र लक्ष्य निर्धारित करना होगा, तब साधन की पवित्रता स्वयं सिद्ध हो जाएगी। श्रीरामचरितमानस में पाठ के पूर्व जिन देवताओं का आवाहन होता है, उसमें भी हनुमान जी का ध्यान पूर्व भाग में ही होता है :

श्रीहनुमन्नमस्तुभ्यमिह्गच्छ कृपानिधे।

पूर्व भागे समातिष्ठ पूजनं स्वीकुरु प्रभो।।

क्योंकि सूर्यवंश में प्रकट श्रीराम सूर्योदय के समय प्राची दिशा से ही प्रकट होते हैं और कौशल्या अंबा के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी प्राची दिशा की ही संज्ञा देते हैं :

बंदउं कौसल्या दिसि प्राची।।

सारी दिशाओं का आधार पूर्व है, उसी के सामने पश्चिम और उसी से बाएं उत्तर और दाहिने दक्षिण की स्वीकृति होती है। ये ही चारों भाई राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हैं। राम पूर्व हैं, लक्ष्मण पश्चिम, भरत उत्तर हैं और शत्रुघ्न दक्षिण हैं। हनुमान जी इन चारों दिशाओं में एक ही तत्व को देखते हैं, इसीलिए हनुमान जी दक्षिण मुख होकर भी पूज्य हैं। हनुमान जी के पास काल की घड़ी नहीं चलती है। दिशा का विवेक वे एक से ही करते हैं। हनुमान जी को कदाचित ज्ञान भी नहीं होता है कि उनमें अपनी कोई साधना और उनका अपना कोई गुण है। उनका मन सदा सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से परिछिन्न रहता है। उनको किसी फल की आकांक्षा भी नहीं होती है :

सर्वारम्भ परित्यागी गुणातीत: स उच्चयते।। (गीता/१५/२५/) वह शुद्ध मन ही रामकाज में लयलीन मन होता है, वह साधक सिद्धि के फल को वह ऐसे त्याग देता है, जैसे किसी शक्तिशाली व्यक्ति ने तिनके को तोड़ दिया हो और उसे तोड़ने में तनिक भी अभिमान न हो, पर यह आशा सबसे नहीं की जा सकती है। सबकी योग्यता का उपयोग कर लेना ही श्रीराम और हनुमान जी की पूर्णता है, क्योंकि अंततोगत्वा समुद्र में तो सभी को समाना है, समुद्र और आकाश तो सभी का आश्रय है, यही तो उसकी व्यापकता है, वही व्यापकता सीता जी और श्रीराम हैं, जिनमें हनुमान जी लीन हैं :

उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।

निज प्रभु मय देखहिं जगत कासी करहिं बिरोध।।

तो द्वैत चाहे अपने गुण दर्शन में हो या दूसरे के दोष दर्शन में हो, वह समान रूप से हानिकारक होता है। हनुमान जी जब भगवान श्री सीताराम जी के चरणों में रत रहते हैं तो उनमें देह जनित गुण दोष से विरति तो स्वयंसिद्ध ही है।


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