ज्ञान आलोक: सिख समाज में गुणों का महत्व
सिख पंथ के अनुयायियों ने धर्म के साथ ही जीवन का वह ढंग अपनाया जिसका उपदेश गुरु नानक ने दिया था। गुरु नानक गुरु अंगद देव गुरु अमरदास गुरु रामदास गुरु अरजन देव और गुरु तेग बहादुर की वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है।
नई दिल्ली; सिख पंथ संसार के आधुनिकतम पंथों में है। वर्ष 1469 में तलवंडी साबो (अब पाकिस्तान में) जन्म लेने वाले गुरु नानक जी ने एक नया पंथ चलाया। उन्होंने परमात्मा, धर्म और जीवन की नई व्याख्या की। उनके अनुयायियों ने धर्म के साथ ही जीवन का वह ढंग अपनाया, जिसका उपदेश गुरु नानक ने दिया था। गुरु नानक, गुरु अंगद देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अरजन देव और गुरु तेग बहादुर की वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है, जिसमें धर्म और अध्यात्म के साथ ही उन गुणों की भी व्याख्या है, जो एक आदर्श मनुष्य एक आदर्श समाज को निरूपित करते हैं।
सिख गुरुओं का मत था कि जीवन में वैयक्तिक गुणों को धारण किए बिना मनुष्य धर्म पालक नहीं हो सकता है। इस तरह सिख गुरुओं का अनुयायी बनने के लिए एक निश्चित जीवन व्यवस्था को अपनाना अपरिहार्य बनता गया। धर्म और भक्ति से ही जीवन और समाज के सूत्र निकले। लेखक ने गुरुवाणी से इन सूत्रों को अथक परिश्रम और अध्ययन से चुनकर पुस्तक में संजोया है, जिससे पता चलता है कि सिख गुरुओं ने धर्म के साथ ही कैसे समाज कि कल्पना की थी। वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब धर्म और समाज की मनचाही व्याख्या ने अनेक प्रश्नचिह्न खड़े किये हुए हैं। व्यवहार में मनुष्य को इंद्रियों का संयुग्म माना गया है। उसकी पांच ज्ञान इंद्रियां कान, नेत्र, रसना, नासिका, त्वचा और पांच कर्म इंद्रियां मुख, हाथ, पैर और लिंग उसे क्रियाशील बनाती हैं। गुरु साहिबान ने इसे भिन्न दृष्टि प्रदान की। उनके अनुसार, परमात्मा ने जीव को रचकर उसमें चेतन तत्व स्थिर किया, जिससे वह संसार में जन्म लेने योग्य हुआ।
परमात्मा ने ही उसकी समस्त इंद्रियों को एक निश्चित उद्देश्य से समर्थ किया। इससे मनुष्य का पल-पल का कर्म परमात्मा की इच्छा के अधीन हो गया। वस्तुत: मनुष्य का व्यवहार ही समाज का व्यवहार बनता है। इस तरह मनुष्य और समाज दोनों के उद्देश्य और व्यवहार परमात्मा के प्रति उत्तरदायी बनते हैं। इसी दृष्टि को विस्तार देते हुए इस पुस्तक के पहले अध्याय में परमात्मा और सिख समाज की चर्चा है। सिख गुरुओं द्वारा प्रकट किए गये परमात्मा के निर्गुण, किंतु सर्वव्यापक स्वरूप ने कैसे सिख समाज को एक विशेष दिशा दी? लेखक ने आशावादिता, सजगता, क्षमाशीलता आदि के सिद्धांतों की उप खंड बनाकर विस्तार से चर्चा की है। सामाजिक समानता के अध्याय में सिख समाज की विशिष्टताओं का उल्लेख है।
समानता के प्रति गुरु साहिबान का इतना प्रबल आग्रह था कि उन्होंने गुरु और शिष्य का भेद भी मिटा दिया था। गुरु रामदास ने अपनी वाणी में स्वीकार किया कि गुरु ही सिख और सिख ही गुरु है, क्योंकि दोनों ही गुरु परमात्मा के उपदेश मानते हैं। सिखों की कर्मठता सदैव चर्चित रही है, किंतु कर्मशीलता के अध्याय को पढ़कर ही बोध होता है कि सिख गुरुओं ने सिखों से कैसे कर्मों की अपेक्षा की थी और किसे सफलता माना था। सिख के अंदर कैसा ज्ञान हो और वह अपने कर्मों के प्रति कैसे सचेत रहे, यह संकल्प ही सिख समाज को विशिष्टता प्रदान करता है। पुस्तक सिख समाज को सेवा से नही, सेवा की अनुभूति से जोड़ती है। इससे सेवा का महत्व प्रकट हुआ है। भावना के बिना सेवा अर्थहीन है।
पूरी पुस्तक में जो भी स्थापनाएं हैं, उन्हें श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के उदाहरण देकर प्रमाणित किया गया है और सिख गुरुओं के जीवन के उदाहरण भी दिए गये हैं। पुस्तक में सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि सिख गुरुओं का मार्ग सिद्धांतों पर आधारित होने के साथ ही पूरी तरह व्यावहारिक भी था। गुरुओं ने जिस समाज कि कल्पना की थी, उसमें और यथार्थ स्थिति में बहुत अंतर है। अंतिम अध्याय के अनुसार भूलों के सुधार की परमात्मा से प्रार्थना की जानी चाहिए। धर्म कोई भी हो, देश कोई भी हो, किंतु मानवीय गुणों से ही जीवन सुखद बनाया जा सकता है। इस विषय पर संभवत: यह अकेली पुस्तक है, जो शोधार्थियों के लिए भी लाभप्रद सिद्ध होगी।
पुस्तक : सिख समाज के सैद्धांतिक आधार
लेखक : डा. सत्येन्द्र पाल सिंह
प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 450 रुपये