हर मनुष्य को जीवन की रथयात्र का संचालन विधिक ढंग से करना चाहिए
गीता का अंतिम श्लोक है कि जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं वहीं श्री तथा विजय है। श्रीकृष्ण विवेक और अर्जुन कर्म के प्रतिनिधि हैं। विवेक के हाथों रथ की लगाम होनी चाहिए। हर मनुष्य को अपने जीवन के रथ का संचालन विधिक ढंग से करना चाहिए।
नई दिल्ली, सलिल पांडेय। मनुष्य जीवन ही नहीं, बल्कि पूरी प्रकृति अपने-अपने ढंग की यात्र कर रही है। फिर सूरज, चंद्रमा, धरती, नदियां, पेड़-पौधे सभी स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील हैं। यात्रा का मतलब ही गतिमान यानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना है। गतिशीलता न हो तो विकास-प्रक्रिया बाधित हो जाएगी। जन्म लेने के बाद शिशु शारीरिक और मानसिक विकास के स्तर पर हर पल गतिशील रहता है। इसमें कमी आ जाने पर शिशु के परिजन चिकित्सकीय उपचार कराते हैं।
भारतीय ऋषियों ने यात्रा के महत्व को बखूबी समझकर इसे भी उत्सव का रूप दिया। किसी भी तरह की यात्रा हो वह शुभ तथा हितकारी होनी चाहिए। महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण जब अर्जुन को रथ पर बैठाकर रणक्षेत्र में गए और उन्होंने नीतिगत उपदेश दिए तो वह मानव के लिए आदर्श आध्यात्मिक जीवन का संविधान बन गया।
गीता का अंतिम श्लोक है कि जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं वहीं श्री तथा विजय है। श्रीकृष्ण विवेक और अर्जुन कर्म के प्रतिनिधि हैं। विवेक के हाथों रथ की लगाम होनी चाहिए। धार्मिक परंपराओं के अंतर्गत भगवान जगन्नाथ, बड़े भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा की जगन्नाथपुरी (ओडिशा) की यात्रा का संदेश यह भी है कि वर्षा ऋतु में कृषि के रूप में जीवन प्राप्त करने का पारिवारिक स्तर पर प्रयास किया जाए। बहन के साथ यात्रा नारी को सशक्त सिद्ध करने का मंतव्य भी प्रकट होता है।
हर मनुष्य को अपने जीवन के रथ का संचालन विधिक ढंग से करना चाहिए। पारिवारिक एकता के साथ जीवन-यापन से घर में उल्लास और उमंग का रथ दौड़ने लगता है। कारण यह है कि जीवन में नकारात्मकता का भी आक्रमण होता रहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह विपरीत चुनौतियों से मुंह न मोड़े, बल्कि जीवन-यात्रा के बीच आने वाली विपरीत परिस्थितियों से लड़ता रहे। ऐसा ही व्यक्ति पूजनीय होता है। वही व्यक्ति जीवन को सार्थक बना सकता है।