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दशहरा पर्व से भारतीय जनमानस को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती आई है

दशहरा पर्व से भारतीय जनमानस को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती आई है। इस पर्व का एक अभिन्न अंग है रामलीला। रामलीला हमारी सांस्कृतिक परंपरा की संवाहक रही हैं। यह विलक्षण है कि लीलाओं की निरंतर लोकप्रियता और उसके संदेश डिजिटल मनोरंजन के इस युग में भी प्रासंगिक हैं। करीब

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 22 Oct 2015 09:59 AM (IST)Updated: Thu, 22 Oct 2015 10:41 AM (IST)
दशहरा पर्व से भारतीय जनमानस को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती आई है
दशहरा पर्व से भारतीय जनमानस को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती आई है

दशहरा पर्व से भारतीय जनमानस को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती आई है। इस पर्व का एक अभिन्न अंग है रामलीला। रामलीला हमारी सांस्कृतिक परंपरा की संवाहक रही हैं। यह विलक्षण है कि लीलाओं की निरंतर लोकप्रियता और उसके संदेश डिजिटल मनोरंजन के इस युग में भी प्रासंगिक हैं। करीब पौने पांच सौ साल लंबी परंपरा और आस्थापूर्ण भक्ति रामलीलाओं की थाती है। 472 साल पहले काशी (बनारस) से रामलीला राम के उस अनुकरणीय चरित्र को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से शुरु हुई जिस चरित्र के आदर्शो के कारण मनुज (मनुष्य) रूप में राम भगवान के रुप में पूजित और वंदनीय हो गए। वर्तमान परिवेश में जब प्राय: सब कुछ बाजार केंद्रित हो जाने की चिंता है और मूल्य-मान्यताएं बाजार की वेदी पर बलि चढ़ती जा रही हैं तब रामलीलाओं के आयोजन और भी महत्वपूर्ण हैं।
वर्तमान परिवेश में भी रामलीलाओं के आयोजन अध्यात्म, परंपरा, भक्तिभाव और समर्पण के पारंपरिक संदेश का लोक में संचार करते हैं। रामलीला की पृष्ठभूमि भारतीय जीवन में समर्पण और सात्विकता के अनुकरण की भावना पर आधारित है। जब काशी में रामलीला का आयोजन प्रारंभ हुआ तब लीला के प्रवर्तक मेघाभगत और उनके कुछ साथी इसे आयोजित करते थे। गोस्वामी तुलसीदास का संकल्प था - राम के उदात्त चरित्र को जन-जन तक, जन-मन तक पहुंचाना और समाज में रामराज्य के आदर्शो की स्थापना के लिए प्रेरक जागृति पैदा करना। इसीलिए उन्होंने रामायण को रामचरित मानस के रुप में सुगम जनभाषा में प्रस्तुत किया। वाल्मीकि की रामायण तुलसीकृत रामचरित मानस के रुप में जन-जन के घरों और जुबान तक पहुंची। लोकप्रिय हुई।
मेघाभगत को ईश्वरीय प्रेरणा का प्रसंग भी रोचक है। चित्रकूट में पवित्र नदी मंदाकिनी के तटपर भइ संतन की भीर के क्रम में मेघाभगत का धनुषबाणधारी दो बालकों से साक्षात्कार हुआ। दोनों बालक धनुषबाण रखकर नदी की ओर गए तो फिर लौटे नहीं। आकाशवाणी हुई-काशी में रामलीला का आयोजन करो, भरत मिलाप की लीला में भगवान दर्शन देंगे। मेघाभगत धनुषबाण की अमानत साथ सहेज कर ले आए। काशी लौटकर रामलीला संवत 1600 में प्रारंभ की। इस तरह 472 साल की परंपरा आज भी पूरे उत्साह के साथ जीवंत हो उठती है-न केवल काशी में, बल्कि देश और दुनिया के तमाम हिस्सों में।


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