Chaitanya Mahaprabhu Jayanti 2023: चित्त मार्जन करता है संकीर्तन, जानिए भक्ति के प्रमुख साधन
Chaitanya Mahaprabhu Jayanti 2023 चैतन्य महाप्रभु जयंती पर जानिए भक्तिशास्त्र में किन साधनों को भक्ति के अंग बताए गए हैं। साथ ही कैसे भगवान श्री कृष्ण के कीर्तन से जीवन सिद्ध हो जाता है। साथ ही जानिए इन साधनों की प्रमुख भूमिकाएं क्या है?
नई दिल्ली, श्रीकृष्णकिंकर बालकृष्ण | Chaitanya Mahaprabhu Jayanti 2023 Special: श्रीकृष्ण जीव के विमल प्रेम के लिप्सु हैं। विमल प्रेम विशुद्धा भक्ति के प्रकाश से प्राप्त होता है। इसी से परम कल्याणमय श्रीकृष्ण ने कलि-कलुषित जीवों पर निर्हैतुक कृपा कर निज प्रेम प्रदान करने के निमित्त भारत के पूर्वाकाशरूप श्रीनवद्वीपधाम (बंगाल) में श्रीकृष्ण-चैतन्य चंद्ररूप से उदित हो भक्ति चंद्रिका का प्रकाश किया था। चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भक्त भाव अंगीकार कर निजाचरण द्वारा जीवों को भक्ति साधन की महान शिक्षा दी थी। भक्ति भाव विभोर, प्रेमानंद निमग्न महाप्रभु के वदनचंद्र से समय-समय पर जो वाक्यामृत निर्गलित हुए हैं, हमको उसी के सम्यक पान से भक्ति रस का पूर्णास्वादन प्राप्त होता है। ये वाक्य आठ श्लोकों के रूप में संगृहित हुए हैं, जो शिक्षाष्टक के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें साधन, भक्ति की महिमा, भक्ति साधन की सुलभता, उसकी रीति, भक्ति की वांछा, भक्त का स्वरूप, भक्ति सिद्धि का बाह्य व आंतरिक लक्षण, प्रेम का स्वरूप आदि सिद्धांतों का संक्षिप्त व गंभीर वर्णन है। श्रीमन्महाप्रभु चैतन्य के सिद्धांत में भक्ति साधन साध्य नहीं, किंतु स्वयंसिद्ध है।
जिस प्रकार ज्ञान, योग, कर्म आदि के अनुष्ठान में साधन-साध्य पृथक-पृथक होते हैं और साधन अपना फल उत्पन्न कर समाप्त हो जाता है, भक्ति के अनुष्ठान में इस प्रकार नहीं होता। इसमें साधन ही साध्य रूप धारण कर लेता है। केवल अवस्था भेद मात्र साधनकाल में जो भक्ति क्रियात्मिका होती है, वही सिद्धावस्था में भावात्मिका हो जाती है। क्रियात्मिका साधन भक्ति दो प्रकार की होती है- एक वैधी, दूसरी रागानुगा। दोनों का क्रियाकलाप तो समान ही होता है। केल प्रवृत्ति में भेद होता है। वैधी साधन भक्ति में मनुष्य की प्रवृत्ति शास्त्र की प्रेरणा से होती है और रागानुगा साधन भक्ति में वह अनुरागवश स्वयं होती है। भक्तिशास्त्र में इस साधन भक्ति के अनेक अंग कहे गए हैं। उनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन ये नौ प्रधान हैं। इन दोनों में श्रवण, कीर्तन श्रेष्ठ हैं और कीर्तन सर्वश्रेष्ठ, क्योंकि कीर्तन में श्रवण, स्मरण आदि अन्य अंगों का साधन स्वयं हो जाता है।
श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन के संबंध में श्रीमन्महाप्रभु का प्रथम ही आदेश है- चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं श्रेय:कैरवचंद्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्। आनंदाम्बुधिवर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।। अर्थात जो चित्तरूप दर्पण का मार्जन करता है, संसार रूप महादावाग्नि का शमन करता है, श्रेयरूप कुमुद को विकास करने वाली चंद्रिका का प्रकाश करता है, विद्यावधू का जीवन है, आनंदसिंधु को बढ़ाने वाला है, प्रतिपद में पूर्णामृत का आस्वादन देता है एवं आत्मा को सर्व प्रकार से निमग्न करता है, ऐसा श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन परम विजय को प्राप्त हो। तात्पर्य यह कि संसार में पारमार्थिक सिद्धि के जितने भी साधन प्रचलित हैं, उन सब पर सम्यक प्रकार से किया हुआ श्रीकृष्ण कीर्तन ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो। श्रीकृष्ण परम साध्य हैं, उसी प्रकार नाम कीर्तन परम साधन है। इस परम साधन की सात भूमिकाएं हैं। प्रथम भूमिका है- चित्तरूप दर्पण का मार्जन होना। स्वच्छ दर्पण में ही हमारा मुख यथावत दिखायी देगा, मलिन दर्पण में नहीं। चित्त की दर्पण से तुलना की गई है। आत्मस्वरूप ज्ञान के विषय में उपनिषद में लिखा है- चेतसा वेदितव्य:। चित्त दर्पण जब प्राकृतिक मलिनता से आवृत होता है, तब उसमें देहाभिमानयुक्त अशुद्ध अहंकाररूप आत्मा का मलिन स्वरूप प्रतिबिंबित होता है। श्रीकृष्ण संकीर्तन से चित्त की मलिनता का मार्जन हो जाता है।
द्वितीय भूमिका है- भवरूप महादावाग्नि का शमन होना। वन में वृक्षों के परस्पर के संघर्ष से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसका नाम दावाग्नि है। इस संसार में जीवों को विषय-वासनाओं के पारस्परिक संघर्ष से जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप उत्पन्न होता है, उसकी दावाग्नि से तुलना की गई है। तृतीय भूमिका है- जीव के श्रेयरूप कुमुद को विकसित करने वाली चंद्रिका का प्रकाश होना। जीव सुखस्वरूप होने के कारण सर्वदा सुख की इच्छा करता है। सांसारिक अथवा इंद्रियजन्य सुख का नाम है प्रेय और पारमार्थिक अर्थात आत्मसुख का नाम है श्रेय। इस श्रेय को कुमुद पुष्प से उपमा दी गई है। कुमुद पुष्प दिन में सूर्य के ताप से मुकुलित (बंद) रहता है और रात में चंद्रमा की शीतल चंद्रिका पाकर खिल जाता है। जड़बद्ध जीव का आत्मसुखरूप श्रेय कुमुद भी तापत्रय के संताप से मुकुलायमान रहता है, श्रीकृष्णनाम चंद्रमा का संकीर्तनरूप से उदय होने पर जब भाव-चंद्रिका का प्रकाश होता है, तब इसका विकास होता है।
चतुर्थ भूमिका है- विद्यावधू के जीवन का संचार। ज्ञानरूप जीव की विद्या ही परम परिचारिका है, इसी से इसे वधू शब्द से संकेत किया गया है। अपरा विद्या के द्वारा क्षर वस्तुओं का ज्ञान होता है, जबकि परा विद्या के द्वारा अक्षर तत्व का। अक्षरं ब्रह्म परमम्। परम ब्रह्म का नाम अक्षर है। श्रीकृष्ण परम ब्रह्म हैं, वे क्या हैं, इसका ज्ञान संकीर्तन से होता है। पंचम भूमिका है आनंद सिंधु का उमगना, जबकि षष्ठ भूमिका है प्रतिपद में पूर्णामृत का आस्वादन होना। संपूर्ण रसस्वरूप श्रीकृष्ण ही जीव के परमोपास्य हैं। पूर्णरसमयी भक्ति की उनकी परमोपासना है। इस सरस उपासना के माधुर्य का आस्वादन रसिक उपासकों को श्रीकृष्णनाम संकीर्तन के प्रतिपद में पूर्णरूप से प्राप्त होता है। सप्तम भूमिका है आत्मा का सर्व प्रकार से स्नपन होना। स्नपन का अर्थ स्नान है। जिस प्रकार स्नान से शरीर निर्मल व स्वस्थ होता है, उसी प्रकार संकीर्तन से आत्मा माया मल से रहित होकर दास्यरूप में अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होता है।