घाटों पर लहराया आस्था का समंदर
ब्रज विलास की रचना 18वीं शताब्दी में ब्रज के प्रसिद्ध संत ब्रजवासी दास ने की। उन्होंने काशी प्रवास के दौरान तुलसीघाट की श्रीकृष्ण लीला देखी।
वाराणसी । पतित पावनी गंगा ने गुरुवार की शाम कालिंदी का रूप लिया और भगवान श्रीकृष्ण ने कालिय का दर्प चूर किया। श्रद्धालुओं की आंखों के सामने द्वापर सा मंजर उतर आया और उनकी भीड़ के रूप में आस्था का समंदर सा लहराया। तुलसीघाट समेत गंगा के निकटवर्ती पाट घंट-घडिय़ाल की गूंज और डमरुओं के नाद के साथ ही वृंदावन बिहारी लाल की जयकार से आबाद रहे।
अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा तुलसीघाट पर आयोजित नागनथैया लीला यानी कालिय दमन की कालजयी प्रस्तुति के दौरान कुछ ऐसे ही नजारों से भक्तगण भावों में बहे। घाट की सीढिय़ों से लगायत छतों-बारजों के साथ ही गंगा की गोद में नौका पर भी आस्थावान स्थान लिए दोपहर से ही प्रभु लीला की झांकी के लिए बेचैन मन से टकटकी लगाए रहे। अपराह्न तीन बजे नियत समय पर नटवर नागर ने मित्र मंडली संग कंदुक (गेंद) क्रीड़ा शुरू कर विभोर कर डाला। ठीक 4.27 बजे गेंद कालिंदी (गंगा) में समाई और 4.40 बजे ब्रज विलास के दोहे 'यह कहि नटवर मदन गोपाला, कूद परे जल में नंदलाला...Ó गायन के बीच नंदलाल कदंब की डाल से कालीदह में कूद पड़े। इसके साथ ही अधीर हुआ लीला स्थल वृंदावन बिहारी लाल व गिरधर नटवर की जय के साथ ही हर-हर महादेव के उद्घोष से गूंज उठा। घंट-घडिय़ाल, शंखनाद व डमरुओं की थाप व महताबी की जगमग में प्रभु श्रीकृष्ण कालिय नाग को नाथकर उसके फण पर पांव रखे बांसुरी बजाते बाहर निकले।
चहुंदिशाओं से कपूर की आरती उतारी गई और प्रभु ने दर्शन देकर निहाल किया।
लीला से प्रदूषण मुक्ति का संदेश : प्रभु श्रीकृष्ण की कालिय नाग के दर्प चूर करने की लीला वस्तुत: नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने का संदेश है जो आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो जाता है। महंत प्रो. विश्वम्भरनाथ मिश्र के अनुसार कालिय नाग ने द्वापर में यमुना को प्रदूषित किया था जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने प्रदूषण मुक्त किया। इसी तरह गंगा में 34 नालों के रूप में बहते कालियनाग का दमन जरूरी है।
तुलसी की कृष्ण भक्ति बेमिसाल : आम धारणा है कि गोस्वामी तुलसीदास आजीवन रामभक्ति में लीन रहे लेकिन उनकी बेमिसाल श्रीकृष्ण भक्ति की भी पुष्टि करती है नागनथैया लीला। इसकी शुरुआत तुलसीदास जी ने कराई थी। शुरुआती दौर में श्रीमद्भागवत ही इसका आधार था। बाद में 'ब्रज विलास' ग्रंथ के अनुसार इसका मंचन किया जाने लगा। ब्रज विलास की रचना 18वीं शताब्दी में ब्रज के प्रसिद्ध संत ब्रजवासी दास ने की। उन्होंने काशी प्रवास के दौरान तुलसीघाट की श्रीकृष्ण लीला देखी। स्वयं तत्कालीन महंत पंडित धनीरामजी से मिलकर 'श्री रामलीला' की ही तरह 'ब्रज विलास' को भी झांझ-मृदंग पर गाकर श्रीकृष्ण लीला की नई पद्धति चलाई। इस पद्धति से कार्तिक कृष्ण द्वादशी से मार्ग शीर्ष प्रतिपदा तक यह लीला होती है।