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बैसाखी 2018: कर्म की सार्थकता का आनंदोत्सव

सपने और कर्म जब अध्‍यात्‍म के साथ जुड़ जाते हैं तो बैसाखी जैसे त्‍योहारों की सार्थकता समझ आती है। मानव जीवन और धर्म का समन्‍वय ही सबसे बड़ा सत्‍य है।

By Molly SethEdited By: Published: Sat, 14 Apr 2018 10:36 AM (IST)Updated: Sat, 14 Apr 2018 10:36 AM (IST)
बैसाखी 2018: कर्म की सार्थकता का आनंदोत्सव
बैसाखी 2018: कर्म की सार्थकता का आनंदोत्सव

किसान की वास्‍तविक पूजा का पर्व 

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अन्नदाता के आनंद और कर्म की सार्थकता का उत्सव है वैशाखी। खेतों में फसल पककर जब घरों तक पहुंचने के लिए तैयार हो जाती है, तो हमारा शरीर और आत्मा भी उत्सव के रंग में रंगने लगते हैं। खेतों में फसल पककर तैयार होने से बड़ी खुशी किसान के लिए कुछ भी नहीं है। उनकी महीनों की कड़ी मेहनत रंग लाती है। किसान केवल बीज ही नहीं बोते हैं, बल्कि वे एक-एक बीज के साथ भविष्य के सपने भी बोते हैं। धरती में जब बीज से अंकुर फूटते हैं, तो किसान के मन की जमीन सचेत हो उठती है। सदियों से इस देश के किसानों ने संकट के न जाने कितने अध्याय बांचे हैं। फसल बढ़ती है, तो उनकी आशंकाएं भी बढ़ने लगती हैं। दिसंबर-जनवरी की सर्द रातों में भी जागकर वे खेत की रखवाली करते हैं। 

प्रार्थनाओं के पूरा होने का उत्‍सव

साथ ही, वे यह प्रार्थना भी दोहराते हैं- हे ईश्वर! मेरे खेत में इतना अन्न उपजे कि धरती का दामन सोने जैसा प्रतीत होने लगे। फिर जब मार्च आता है, तो फसल सुनहरी होनी शुरू हो जाती है। खेत में बहाया गया पसीना सोने में बदलने लगता है। उम्मीदें भी आसमान छूने के लिए बेताब होने लगती हैं। दुआओं के मौन में मानो कोई आकर कह जाता है- चल भंगड़ा पाते हैं, तेरा खेत सुनहरी होया सी। जब फसल कटने लगती है, तो देह भी उत्सव के रंग में रंगने लगती है। कहीं ढोल बजने लगते हैं, तो कहीं गिद्दा और कहीं भांगड़ा मचल उठता है। सारा आलम कह उठता है- ओ जट्टा आई बैसाखी। गुरद्वारे में होती अरदास, कड़ाह प्रसाद पाते हाथ, लंगर चखती संगत और पंथ की स्थापना को पूजती आत्मा 'आदि सच जुगादि सच' कहती वाणी के साथ कहती है कि अब मेहनत का फल पक गया है। जाओ, रात में अग्नि को अन्न की आहुति देकर पूरी दुनिया की पेट की आग को बुझाने के कारण बन जाओ। यही तुम्हारे जीवन की सार्थकता है।

अनिश्‍चितता से उबरने का आनंद

गांव का जीवन सरल नहीं होता है और न ही किसान के भाग्य में अनुकूलता के ग्रह डेरा डालते हैं। तब भी इस देश का चिंतन कहता है कि उत्तम कृषि मध्यम व्यापार, तो यहां यह सवाल लाजिमी है कि इस कठिन और अनिश्चित कृषि को उत्तम कर्म कैसे मान लिया गया। इसका उत्तर भी हमारी मनीषा ही देती है, जो कहती है कि सब तो अपना-अपना पेट भरने के लिए कर्म करते है, लेकिन सबका पेट भरने के लिए किसान ही दिन-रात एक करते हैं। मौसमों की मार झेलकर, कर्ज के बोझ से दबा जीवन जीकर, साधन विहीन गांवों में पूरी जिंदगी गुजारकर भी किसान का कर्म उत्तम है, क्योंकि वह सर्वाधिक अमूल्य अन्न का दाता है। वैशाखी से पहले ज्यादातर खेतों में गेहूं पक जाता है और वैशाखी की रात नए अन्न को जब अग्नि को समर्पित किया जाता है, तो भावना यही रहती है कि हे अग्नि देवता! हम अपना अन्न, जगत की भूख की अग्नि को शांत करने के लिए अर्पित कर सकें। यही हमारा जीवन लक्ष्य हो। यही दाता भाव अन्नदाता के जीवन में वैशाखी के उत्सव का आरंभ बनता है और गांव-गांव में मेले सज उठते हैं। ढोल बज उठते हैं। अन्नदाता का आनंद सारी सृष्टि का आनंद बनकर इस तरह नाच उठता है, मानो धरती का कण-कण कह रहा है- श्री वाहे गुरु जी का खालसा, श्री वाहे गुरु जी की फतेह। 

इतिहास और पर्व का सामंजस्‍य

वैशाखी के पर्व से ही खालसा पंथ की स्थापना का इतिहास जुड़ा हुआ है। गुरु गोविंद सिंह जी ने इसी दिन शहादत के लिए आगे आने को कहा और जो पांच वीर बलिदान के लिए तैयार हुए, वे पंज प्यारे कहलाए। गुरु गोविंद सिंह जी ने उनसे बलिदान नहीं लिया, वरन उन्हें अमृत चखाकर यह आदर्श रखा कि जो धर्म पथ के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते, वही अमृत के अधिकारी बनते हैं। यही वैशाखी जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड की भी गवाह बनी, जब क्रूर जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवाकर अनगिनत जानें ले लीं। यह शहादत भी व्यर्थ नहीं गई और इस घटना ने ब्रिटिश राज्य के भारत से खात्मे की भूमिका लिखी। 

पूरे देश का पर्व

वैशाखी केवल पंजाब या हरियाणा का पर्व नहीं है, बल्कि यह भिन्न-भिन्न रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। अब जब देश का स्वरूप बदल रहा है, तो उत्सव और पर्व भी अपना रंग-ढंग बदल रहे हैं। आधुनिक जीवन शैली अब गांवों में भी सिर चढ़कर बोल रही है। रिश्तों की फीकी पड़ती रंगत और विदा ले रहा साझा जीवन कड़वी सच्चाई है। सब कुछ खत्म होने की आहट अब भी इसलिए दबे पांव आ रही है, क्योंकि उसे भी पता है कि इस देश की परंपराओं का अस्तित्व सदियों पुराना है। जब-जब इसे चुनौती मिली है, तब-तब यह नए सिरे से अमृत चखकर चिरंजीवी हो उठा है। वैशाखी प्रकृति का आनंदोत्सव तो है ही, साथ ही यह कर्म की सार्थकता का भी पर्व है और धर्म की स्थापना का भी उद्घोष है। पंजाब से बड़ी तादाद में लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बसे हैं। वहां फसल नहीं पकती, लेकिन वैशाखी का उत्सव वहां भी अद्भुत रहता है। हो भी क्यों न, हम भारतीय जहां कहीं भी जाते हैं, हमारी कर्म-धर्म-प्रकृति प्रियता हमें जब भी वैशाखी से जोड़ती है, तो हम उत्सव के आरंभ में ही अरदास करते हैं कि .. हे निमाणेयां दे माण, निताणेयां दे ताण.. नानक नाम चढ़दी कलां तेरे भाणे सरबत दा भला.. जो अशरण का आश्रयदाता है, उससे अरदास करना कि सर्व का कल्याण हो और प्रार्थना करना कि हमें वही लोग मिलें, जिनसे मिलकर तेरा नाम चित्त पर चढ़ जाए, क्योंकि तेरा नाम होगा तो सर्व का कल्याण होगा। 

नानक नाम का उत्‍सव

वैसे भी नाम नानक है, तो सबका भला होना तय ही है। कहते हैं कि नानक नाम जहाज है, जो चढ़ता सो पार। यही प्रार्थना के भाव वैशाखी के उत्सव के आधार हैं। वैशाखी अन्नदाता के आनंद का उत्सव है। पसीने के सोना बन जाने का उत्सव है। यह धर्म की संस्थापना का भी उत्सव है। यह सर्व की अखंड मंगल कामना का उत्सव है। यह सर्व के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने का भी उत्सव है। 

By: अशोक जमनानी आध्यात्मिक विचारक और चिंतक


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