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बारह बरस बाद 2028 में ये फिर आए तो इससे कहीं गुना उल्लास के साथ इसका स्वागत करें

विरह की वेदना क्या होती है, ये आज उज्जैन की गलियों से पूछा जाए तो वे आपके कंधों पर सिर टिकाकर रोने लगेंगी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 23 May 2016 11:42 AM (IST)Updated: Mon, 23 May 2016 11:55 AM (IST)
बारह बरस बाद 2028 में ये फिर आए तो इससे कहीं गुना उल्लास के साथ इसका स्वागत करें

उज्जैन। विरह की वेदना क्या होती है, ये आज उज्जैन की गलियों से पूछा जाए तो वे आपके कंधों पर सिर टिकाकर रोने लगेंगी। कल तक भीड़ से भरे, श्रद्धालुओं को उत्साह से शरबत पिला रहे मोहल्ले आज मुंह छुपाए कहीं दुबक गए हैं। बीते एक माह से हजारों-हजार लोगों को रात-दिन शिप्रा के घाटों की ओर ले जाने वाली सड़कें इतनी उदास हैं कि आज खुद उस ओर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहीं।

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कल तक अपनी पीठ पर हजारों गाड़ियों का बोझ उठाने वाले ओवरब्रिज सूनी आंखों से ताक रहे हैं कि कहीं कोई श्रद्धालुओं से भरी गाड़ी आए और उन पर से गुजरकर उन्हें धन्य कर जाए। शिप्रा के घाट तो बात करने को राजी नहीं। बहन की विदाई के बाद जैसे भाई कहीं छुपकर रोता है...घाट वैसे ही निपट अकेले होकर रह-रहकर शिप्रा के गले लग रहे हैं।

माइक के शोर और मंत्रों की मंगल ध्वनि से चौबीसों घंटे गूंजते रहने वाला मेला क्षेत्र गहरे सन्नाटे में डूब गया है। पंडालों की आंखें उनकी देह से हाथ-पांव बन चुके बांस-बल्ली निकलते देख पथरा गई हैं। बस स्टैंड चुप्पी साधे खोए-खोए से हैं, रेलवे स्टेशन भीड़ की आपाधापी में छूट गए श्रद्धालुओं के जूते-चप्पलों को किसी थाती की तरह संभालने में जुटा है।

मेला क्षेत्र में उड़ती धूल कटी पतंग की तरह जमीन पर आकर बिछ गई है। महीनेभर तक लाखों लोगों का पेट भरने वाले अन्न क्षेत्र के चूल्हे इस आस में है कि भूखे श्रद्धालुओं का कोई टोला आएगा और वे फिर प्रज्ज्वलित हो उठेंगें। मंदिरों की घंटियां चुप साधे टंगी हैं। देवालयों की सीढ़ियां सफाई कर्मचारियों से कह रही हैं कि हमारी पीठ पर से श्रद्धालुओं की चरण-रज के निशान मत मिटने देना।

मंदिरों के शिखर दूर-दूर तक टोह ले रहे हैं कि कहीं से कोई तो उनकी ओर आता दिखे। मगर अब मेला बढ़ चला है। न श्रद्धालु हैं, न संत...न नागा हैं न औघड़। है तो बस आत्मा तक को भेद देने वाला गहरा वीराना।

सिंहस्थ अब सनातन धर्म के बेटों से विदाई मांग चुका है। ट्रेन, बस, ठेलों और बैलगाड़ियों में सवार होकर वह टुकड़ों-टुकड़ों में पूरे देश में बिखर चुका है। उज्जैन के रहवासी हाथ जोड़कर उसे बोझिल मन से विदा दे रहे हैं...वे उसे रोक लेना चाहते हैं, मगर मेला बारह बरस बाद फिर आने का वादा कर उन्हें विरह में रोता छोड़ चला जा रहा है।

आइए, आप-हम भी अपने दारुण दुख को समेटें और इस महान मेले को प्रकृति का नियम पालकर ग्रहों-नक्षत्रों की चाल के अनुसार अगले पड़ाव की यात्रा के लिए सहमति दें। अपनी स्मृतियों में इसका उल्लास संजोएं। इससे बिछोह की वेदना को मन में कहीं गहरे पैठा लें कि जब बारह बरस बाद 2028 में ये फिर आए तो इससे कहीं गुना उल्लास के साथ इसका स्वागत करें।


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