वेदों और ग्रंथों में है राष्ट्र का जयगान, जानें-इसके बारे में सबकुछ
वेद में ब्रह्म यानी ज्ञान-विद्या को भी राष्ट्र का आधार माना गया है। एक सक्षम राष्ट्र वह होता है जहां ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो। ब्रह्म का प्रयोग ज्ञान और विद्या के साथ मंगलविधान को बताता है।
शब्द ‘राष्ट्र’ का प्रथम प्रयोग वेद में हुआ है। राष्ट्र की प्रगति की बात वेदों में वर्णित है, उसके आठ आधार बताए गए हैं- सत्य, ऋत, उद्यम, उग्र, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ। यजुर्वेद में कहा गया है- वयं राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता: यानी हम सभी राष्ट्र-जन राष्ट्र की रक्षा के लिए जाग्रत और जीवंत रहें। गौरतलब है भारत का आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है। वेद में कहा गया है नहि सत्यात्परोधर्म: यानी सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। ऋतं सत्यं जयते। अर्थात सत्य के साथ ऋत यानी शाश्वत नियमों में बंधा सत्य होना चाहिए। इसलिए राष्ट्र का पहला आधार सत्य व दूसरा ऋत माना गया है।
इसके बाद राष्ट्र का आधार उद्यम है। उद्यमी होना राष्ट्र के लिए प्रगति का आधार है। कहा गया है, कृतं मे दक्षिणो हस्ते जयो मे सव्य आहित:। यानी कर्म करना हमारे दाहिने हाथ में, सफलता हमारे बायें हाथ में है। अर्थात राष्ट्र की जय तब होती है, जब राष्ट्र का हर व्यक्ति अपने कठिन पुरुषार्थ के जरिए कार्य कर्तव्य भावना से करे। शास्त्र कहते हैं जिस राष्ट्र में भाग्य के भरोसे रहकर लोग कर्तव्य का पालन नहीं करते, वह राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए भ्रष्टाचार, कामचोरी और विश्वासघात राष्ट्र के दुश्मन माने गए हैं।
राष्ट्र की उन्नति का चौथा आधार उग्र है। उग्र तेज के अर्थ में प्रयोग होता है। यह उग्रता सात्विक और निर्माण करने वाली होनी चाहिए, विनाश करने वाली नहीं। कार्य जब जोश व होश के साथ किया जाता है, तब वह सफल होता है। तेजस्विता राष्ट्र रक्षा, संस्कृति व धर्म की रक्षा का आधार है। दीक्षा का अर्थ वेद में व्रत या संकल्प बताया गया है। किसी शुभ कार्य या उद्देश्य के लिए समर्पित हो जाना। जब पक्का संकल्प किया जाए तो वह दीक्षा है। तप राष्ट्र की महान शक्ति और आधार है। वेद के अनुसार, अच्छे उद्देश्य के लिए दुख सहना तप है। राष्ट्र की उन्नति के लिए नागरिकों में तप की भावना हो। महाभारत में कहा गया है- तप: स्वकर्म वर्तित्वम् और तप: स्वधर्म वर्तित्वम्। यानी हर व्यक्ति को अपने कर्तव्य को पूरी प्रवणता के साथ करना चाहिए। यही तप है।
वेद में ब्रह्म यानी ज्ञान-विद्या को भी राष्ट्र का आधार माना गया है। एक सक्षम राष्ट्र वह होता है, जहां ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो। ब्रह्म का प्रयोग ज्ञान और विद्या के साथ मंगलविधान को बताता है। यानी ज्ञान-विद्या के साथ उसका मांगलिक इस्तेमाल हो, किसी विनाश में नहीं। राष्ट्र का आठवां आधार यज्ञ को माना गया है। वैदिक दर्शन में शुभ संकल्प के साथ किए जाने वाले कर्म यज्ञ कहे जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-नायं लोकोस्त्ययज्ञस्य कुतोन्य: कुरुसत्तम। यानी यज्ञ से रहित को लोक या परलोक कुछ भी नहीं मिलता। वेद में देवपूजा यानी पूजनीयों का पूजन करना, संगतिकरण यानी विभिन्न वगोर्ं का समन्वय और दान यानी राष्ट्र के लिए नि:स्वार्थ त्याग करना। महर्षि दयानंद ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है- राष्ट्र में तरह-तरह के यज्ञ होते हैं, जिन्हें कर्तव्य मानकर करने से राष्ट्र विकास के रास्ते पर बढ़ता है। वैदिक राष्ट्रवाद ऐसी विचारधारा है, जो राष्ट्र के हर व्यक्ति की उन्नति के लिए प्रेरणा देती है, जहां न तो वर्ण व वर्ग का भेद है, न अन्य कोई संकुचित भावना।
सनातन संस्कृति
अखिलेश आर्येन्दु
वैदिक वांङ्गमय के अध्येता
डिसक्लेमर
'इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।'