स्वामी विवेकानंद: वैज्ञानिक अध्ययनों के कारण ईश्वर से उनका विश्वास नष्ट हो गया था
विवेकानंद के व्याख्यानों के सार पर रोमारोला ने लिखा संसार में कोई भी धर्म मनुष्यता कि गरिमा को इतने ऊँचे स्वर में सामने नहीं लाता जैसा हिन्दू धर्म लाता है l
भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत महापुरुषों में स्वामी दयानंद तथा स्वामी विवेकानंद का अन्यतम स्थान हैl भारतीय पुनर्जागरण के महान सेवक स्वामी विवेकानंद का जन 12 जनवरी सन 1863 में कल्केज में एक सम्मानित परिवार में हुआ था l इनकी माता आध्यात्मिकता में पूर्ण विशवास करती थी परन्तु इनके पिता स्वतंत्र विचार के गौरवपूर्ण व्यक्ति थे l इनका पहला नाम नरेन्द्रनाथ था, शारीरिक दृष्टि से नारेंद्नाथ हष्ट-पुष्ट व् शौर्यवान थे l उनका शारीरिक गठन और प्रभावशाली मुखाकृति प्रत्येक को अपनी और आकर्षित कर लेती थी l
रामकृष्ण के शिष्य बन्ने से पूर्व वे कुश्ती, घुन्सेबाजी, घुड़सवारी और तैरने आदि में भी निपुणता प्राप्त कर चुके थे l उनकी वृद्धि विलक्षण थी, जो पाश्चात्य दर्शन में ढाली गयी थी l उन्होंने देकार्त, ह्य म, कांट, फाखते, स्प्नैजा, हेपिल, शौपेन्हावर, कोमट, डार्विन और मिल आदि पाश्चात्य दार्शनिको कि रचनाओं को गहनता से पढ़ा था l इस अध्ययनों के कारण उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक और विश्लेष्णात्मक हो गया था l प्रारंभ में वे ब्रह्मसमाज कि शिक्षाओं से प्रभावित हुए, परन्तु वैज्ञानिक अध्ययनों के कारण ईश्वर से उनका विश्वास नष्ट हो गया था l पर्याप्त काल तक वे नास्तिक बने रहे और कलकत्ता शहर में ऐसे गुरु कि खोज में घूमते रहे जो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान करा सके l
भारत की पावन माती में, हुए अनेकों संत l
एक उन्ही में उज्जवल तारा, हुए विवेकानंद ll
रामकृष्ण परमहंस से भेंट
जब विवेकानंद परमहंस से मिले तो उनकी आयु केवल 25 वर्ष की थी l परमहंस से उनका मिलना मानो दो विभिन्न व्यक्तियों का मिलन प्राचीन तथा नविन विचारधारा का मिलन था l परमहंस की अध्यात्मिक विचारधारा ने विवेकानंद को विशेष रूप से प्रभावित किया l परमहंस से मिलने पर विवेकानंद ने उनसे प्रशन किया कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है ? परमहंस ने मुस्कुराते हुए कहा हाँ देखा है l मैं इसे देखता हूँ, जैसे मैं तुम्हे देखता हूँ l इसके पश्चात परमहंस ने विवेकानंद का स्पर्श किया l इस स्पर्श से विवेकानंद को एक झटका सा लगा और उनकी आंतरिक आत्मा चेतन हो उठी l अब उनका आकर्षण परमहंस के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा l अब उन्होंने रामकृष्ण के आगे अपने को पूर्णरूप से अर्पित कर दिया और उनके शिष्य बन गए l
विश्वधर्म सम्मलेन में भाग लेना
इन दिनों हिन्दू धर्म कि पाश्चात्य विचारक कड़ी आलोचना करते थे जिससे विवेकानंद के ह्रदय को गहरा आघात लगता था l इन आलोचनाओं का प्रत्युतर देने के लिए उन्होंने निश्चय किया कि संसार के सामने भारत की आवाज बुलंद की जाय l 31 मई सन 1893 में वे अमेरिका गए और 11 सितम्बर, सन 1893 शिकागो में उन्होंने 'विश्वधर्म संसद' में अत्यंत प्रतिभाशाली सारगर्भित भाषण दिए l विवेकानंद का भाषण संकीर्णता से परे सार्वदेशिकता और मानवता से ओत-प्रोत था l वहां की जनता उनकी वाणी को सुनकर मुग्ध हो जाती थी l विवेकनद के शब्दों में 'जिस प्रकार साड़ी धाराएँ अपने ताल को सागर में लाकर मिल देती है, उसी प्रकार मनुष्य के सारे धर्म ईश्वर की और ले जाते है l
स्वामी विवेकानंद ने फरवरी, 1896 में न्यूयार्क अमेरिका में वेदांत समाज की स्थापना की l 1899 में उन्होंने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण सेवाधर्म की स्थापना की l इस समय ही भारत में भीषण अकाल पड़ा l अकाल पीड़ितों की मिशन के साधुओं ने हृदय से सेवा की l 4 जुलाई सन 1902 में उनका स्वर्गवास हो गया l विवेकानंद जी की प्रमुख रचनाये (1) ज्ञान योग, (2) राजयोग, (3) भक्ति योग, और (4) कर्मयोग है l
स्वामी विवेकानंद के राजनैतिक विचार
यह सत्य है कि विवेकानंद राजनैतिक आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे इस पर भी उनकी इच्छा थी कि एक शक्तिशाली बहादुर और गतिशील राष्ट्र का निर्माण हो l वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का स्थायी स्वर मानते थे l हिंगल के समान उनका विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक तत्व कि अभिव्यक्ति है l उदाहरण के लिए धर्म भारत के इतिहास का एक प्रमुख निर्धारक तत्व रहा है l स्वामी विवेकानंद शब्दों में "जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर रह्स्त्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है l अन्य सभी तत्व इसी में केन्द्रित होते है प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्य सब कुछ गौण है l” भारत का तत्व धर्म है l समाज-सुधार तथा अन्य सब कुछ गौण है l” अन्य शब्दों में विवेकानंद ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिंद्धांत का प्रतिपादन किया l उनका विशवास था कि धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का प्रमुख आधार बनेगा l उनके विचार में किसी राष्ट्र को गौरवशाली, उसके अतीत कि महत्ता की नींव पर ही बनाया जा सकता है l अतीत की उपेक्षा करके राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता l वे राष्ट्रीयता के अध्यात्मिक पक्ष में विश्वास करते थे उनका विचार था कि भारत में स्थायी राष्ट्रवाद का निर्माण धार्मिकता के आधार पर ही किया जा सकता है l
भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था
स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति के महान पुजारी थे l उनका कथन था कि देश के बुद्धि जीवियों को पाश्चात्य संस्कृति कि चमक दमक में भारतीय संस्कृति को नहीं भूल जाना चाहिए l स्वामी जी का विचार था कि भारतवासियों को अपनी एकता को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए l यदि देशवासी ब्राह्मण, अब्राह्मण, द्रविड़-आर्य आदि विवादों में ही पड़े रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकेगा l स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करने के पश्चात् देखा कि देश की अधिकांश निर्धन जनता अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत करती है l उन्होंने यह भी अनुभव किया कि इस व्यापक दरिद्रता और निर्धनता का मूल कारण यहाँ के निवासियों का आलसी और भाग्यवादी होना है l
संसार के सन्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता की सर्वोच्चता का डंका बजने का श्री विवेकानंद को ही जाता है अपनी ओजस्वी वाणी के द्वारा सोये हुए हिन्दुओं में स्वाभिमान और आत्मगौरव की भावना का जो संचार किया वह उपेक्षित नहीं किया जा सकता l